● संकलन: सूर्यकांत उपाध्याय

संध्या का समय था। सरयू के तट पर तीनों भाई टहल रहे थे। भरत ने राम से गंभीर प्रश्न किया –
‘भइया, माता कैकई ने जो षड्यंत्र किया, वह राजद्रोह था। आपने उन्हें दंड क्यों नहीं दिया?’
राम मुस्कुराए, बोले –
‘जिस मां ने तुम जैसे धर्मात्मा को जन्म दिया, उसे दंड कैसे दूं भरत?’
भरत ने फिर कहा –
यह मोह है भइया। एक राजा का न्याय मोह से परे होता है। उत्तर दीजिए, जैसे कोई प्रजाजन पूछ रहा हो।
राम गम्भीर हो गए। बोले –
‘अपने ही लोगों को दंड न देना ही सबसे कठोर दंड होता है भरत। माता कैकई ने सब कुछ खो दिया; पति, पुत्र, सम्मान और सुख। वे हर क्षण अपने अपराधबोध में जीती रहीं। ऐसा जीवन किसी मृत्युदंड से कम नहीं।
राम की आंखें नम थीं। फिर बोले –
‘और सोचो भरत, यदि वनवास न हुआ होता तो कौन जान पाता कि भाइयों का स्नेह क्या होता है? मैं केवल आज्ञा का पालन कर रहा था पर तुम और लक्ष्मण ने प्रेम में वनवास जिया। यह सब न होता तो संसार यह आदर्श कैसे जानता?
भरत के नेत्रों से अश्रु बहने लगे और वे राम से लिपट गए।