● सूर्यकांत उपाध्याय

एक गांव में एक संन्यासी नीम के पेड़ के नीचे सर्द रातें बिताता था। राजा ने उसकी साधना से प्रभावित होकर उसे राजमहल में निवास का निमंत्रण दिया। राजा को लगा था कि संन्यासी मना कर देगा पर वह सहजता से घोड़े पर सवार होकर चल पड़ा।
महल में रहते हुए संन्यासी ने हर सुख-सुविधा स्वीकार की, जिससे राजा की श्रद्धा धीरे-धीरे खत्म हो गई। छह महीने बाद राजा ने पूछा, ‘आपमें और मुझमें फर्क क्या है?’
संन्यासी ने कहा, ‘सवाल तो उसी दिन उठ गया था जब मैं घोड़े पर बैठा था।’ फिर उसने राजा को वहां तक चलने को कहा जहां सवाल पैदा हुआ था। गांव के बाहर, राज्य की सीमा तक।
वहां संन्यासी ने कहा, ‘अब मैं आगे जाता हूं, तुम साथ चलोगे?’
राजा बोला, ‘मैं नहीं जा सकता, मेरी पत्नी, राज्य, परिवार है।’
संन्यासी ने कहा, ‘यही फर्क है। मैं तुम्हारे महल में था लेकिन महल मेरे भीतर नहीं था। तुम महल में नहीं हो बल्कि महल तुम्हारे भीतर है। यही बंधन है।’
राजा ने श्रद्धा से उसके चरण पकड़ लिए पर संन्यासी ने कहा, ‘अब मैं नहीं लौटूंगा क्योंकि तुम फिर उसी उलझन में फंस जाओगे।’
संन्यासी ने कहा, ‘संन्यासी वही है जो संसार में रहकर भी उससे भीतर से निर्लिप्त हो जैसे अतिथि, जैसे मेहमान।’
यह बोलकर संन्यासी वन की तरफ निकल गया।