● सूर्यकांत उपाध्याय

‘ना उसने नाम पूछा, ना दाम लिया… बस मेरी मां बनने की राह आसान कर गया।’
शिवानी, 29 वर्ष की टीचर, गर्भावस्था के सातवें महीने में थी। पति राहुल चेन्नई में थे और माँ-बाप पंजाब में। डॉक्टर ने आराम की सलाह दी तो मायके जाने का निर्णय लिया।
राहुल ने छोटे भाई आरव से कहा कि वह शिवानी को स्टेशन छोड़ दे।
वो गई, भारी पेट और सूजे हुए पांवों के साथ। लेकिन ट्रेन दो घंटे लेट थी।
आरव ने कहा, ‘भाभी, थोड़ी देर में आता हूँ…’
और फिर लौटकर कभी नहीं आया।
शिवानी स्टेशन पर अकेली बैठी थी। दर्द, प्यास और असहायता उसे घेर रही थी। तभी एक बुज़ुर्ग कुली सामने आया। फटी कमीज़, सफेद टोपी, आँखों में करुणा।
शिवानी बोली, ‘बाबा, सामान प्लेटफॉर्म 5 पर रखना है।’
वो मुस्कराया, ‘पंद्रह रुपये दे देना बिटिया, शाम की रोटी हो जाएगी।’
ट्रेन प्लेटफॉर्म 9 पर शिफ्ट हो गई। अब सीढ़ियाँ, भारी बैग और बुजुर्ग कुली।
शिवानी ने मना किया पर वो बिना सुने ही चढ़ने लगा।
ट्रेन आई, शिवानी चढ़ गई। वो कुली दौड़ते आया। एक-एक कर तीनों बैग चढ़ाए… फिर दूर खड़ा हाथ जोड़कर नमस्ते कर चला गया।
शिवानी की आंखों में आँसू थे।
ना उसने नाम पूछा, ना दाम लिया… बस सेवा दी और चला गया।
दिल्ली पहुंचकर शिवानी ने एक बेटे को जन्म दिया। नाम रखा करुण।
वो कई बार उस स्टेशन गई, उन्हीं बाबा को ढूंढने… पर कोई कहता
‘ऐसे कई कुली हैं बहन जी पर वैसा कोई नहीं दिखता।’
आज शिवानी ‘करुण फाउंडेशन’ चलाती है।
जहां स्टेशन के बुज़ुर्गों, कुलियों और ज़रूरतमंदों को खाना, दवाइयाँ और गर्म कपड़े मिलते हैं।
जब कोई पूछता ‘क्यों करती हो ये सब?’
वो बस मुस्कराकर कहती है:
‘कभी एक बूढ़े ने मेरी ज़िंदगी आसान की थी…
अब मैं हर दिन वही एहसान किसी और पर लुटा रही हूँ…’
सीख : हर मदद पैसे से नहीं होती, कुछ लोग हमें इंसानियत की भाषा सिखा जाते हैं, नि:स्वार्थता की। कुछ चेहरे चले जाते हैं लेकिन उनका असर आत्मा में हमेशा ज़िंदा रहता है।