● सूर्यकांत उपाध्याय

पिताजी अब बूढ़े हो चले थे। चलते वक़्त दीवार का सहारा लेते, जिससे उंगलियों के निशान दीवार पर उभर आते। पत्नी को यह अच्छा नहीं लगता था। एक दिन पिताजी ने सिर पर तेल लगाया और दीवार का सहारा ले लिया। दीवार पर दाग लग गया। पत्नी ने नाराज़गी जताई और मैंने भी पिताजी को डांट दिया।
पिताजी चुप हो गए, आंखों में दर्द था। फिर उन्होंने दीवार का सहारा लेना ही छोड़ दिया। कुछ दिन बाद वे गिर पड़े, कूल्हे की हड्डी टूटी। इलाज हुआ, पर शरीर ने साथ नहीं दिया… और वे हमें छोड़ गए।
गहरा पछतावा रहा। कुछ समय बाद जब घर रंगा जा रहा था, मेरा बेटा दीवार के उन हिस्सों को नहीं पेंट होने देना चाहता था जहां दादाजी के निशान थे। पेंटर ने समझदारी से उनके चारों ओर सुंदर डिज़ाइन बना दिए। वे निशान अब घर की पहचान बन गए हैं।
सालों बाद, जब मुझे भी सहारे की ज़रूरत पड़ी, मेरा बेटा दौड़ा आया और बोला, ‘पापा, दीवार का सहारा लीजिए।’ और मेरी पोती बोली, ‘दादू, मेरे कंधे का सहारा लीजिए।’
मेरी आंखें भर आईं। काश, मैंने भी पिताजी के लिए यही किया होता…
बाद में पोती ने अपनी ड्रॉइंग दिखाई, जिसमें वही दीवार थी और नीचे लिखा था, ‘हम चाहते हैं कि हर बच्चा अपने बड़ों से ऐसे ही प्यार करे।’
मैं अपने कमरे में गया, मन ही मन पिताजी से माफ़ी मांगी और बहुत रोया।
अगर घर में बुज़ुर्ग हैं, तो उन्हें बोझ नहीं, आशीर्वाद मानिए और बच्चों को यही सिखाइए, व्यवहार से।