■ सूर्यकांत उपाध्याय

अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित हुए। उनके बाद उनके पुत्र जन्मेजय राजा बने।
एक दिन जन्मेजय वेदव्यास जी के सान्निध्य में बैठे थे। बातचीत के दौरान उन्होंने कुछ रोष के साथ कहा,“भगवन्, जब आप, भगवान श्रीकृष्ण, भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और धर्मराज युधिष्ठिर जैसे महापुरुष उपस्थित थे, तब भी महाभारत का विनाशकारी युद्ध क्यों नहीं रोका जा सका? यदि मैं उस समय होता तो अपने पुरुषार्थ से उस विध्वंस को अवश्य टाल देता।”
अहंकार से भरे इन शब्दों को सुनकर भी व्यास जी शांत रहे।
उन्होंने कहा, “पुत्र, अपने पूर्वजों की क्षमता पर संशय मत करो। जो कुछ हुआ, वह विधि का विधान था। यदि उसे बदला जा सकता तो श्रीकृष्ण स्वयं रोक देते।”
परंतु जन्मेजय अपने विचार पर अडिग रहा। बोला, “आप मेरे जीवन की कोई आने वाली घटना बताइए, मैं उसे घटित होने से रोक दूँगा, जिससे सिद्ध हो जाएगा कि होनी अपरिवर्तनीय नहीं होती।”
व्यास जी बोले, “सुनो, कुछ वर्ष बाद तुम काले घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने जाओगे। दक्षिण दिशा में समुद्र तट पर तुम्हें एक सुंदर स्त्री मिलेगी। मैं तुम्हें चेतावनी दूँगा कि उसे अपने महल में न लाना पर तुम मेरी बात नहीं मानोगे। उससे विवाह करोगे और उसके कहने पर एक यज्ञ कराओगे। याद रखना, उस यज्ञ को वृद्ध ब्राह्मणों से ही कराना पर तुम युवा ब्राह्मणों से कराओगे और उसी यज्ञ में ऐसी घटना घटेगी कि तुम उन्हीं ब्राह्मणों को प्राणदंड दोगे। उस पाप के कारण तुम्हें कुष्ठ रोग होगा और वही तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा।”
जन्मेजय हँस पड़ा, “मैं तो अब काले घोड़े पर बैठूंगा ही नहीं, फिर यह सब कैसे होगा?”
व्यास जी शांत स्वर में बोले, “होनी अपने मार्ग स्वयं बनाती है।”
समय बीता। एक दिन जन्मेजय को शिकार पर जाने की प्रबल इच्छा हुई। उसने सोचा, “काले घोड़े पर नहीं जाऊँगा।” पर अस्तबल में उस दिन वही घोड़ा उपस्थित था। घोड़ा अनियंत्रित होकर दक्षिण दिशा की ओर दौड़ पड़ा और समुद्र तट पर एक सुंदर स्त्री मिली। राजा ने उसे महल लाया और अंततः विवाह भी कर लिया।
फिर रानी के कहने पर यज्ञ हुआ, जिसमें युवा ब्राह्मण बुलाए गए। किसी प्रसंग पर उन्होंने रानी पर हँसी की और क्रोधित होकर राजा ने उन्हें मृत्यु दंड दे दिया। उसी क्षण उसके शरीर में कुष्ठ फूट पड़ा।
भयभीत होकर राजा व्यास जी के चरणों में पहुँचा। व्यास जी ने कहा, “तुझे अंतिम अवसर देता हूँ। श्रद्धा और विश्वास से महाभारत का श्रवण कर; जितना विश्वास होगा, उतना रोग मिटेगा। पर यदि तू अविश्वास करेगा तो सब व्यर्थ हो जाएगा।”
राजा कथा सुनने लगा पर जब भीम के अद्भुत पराक्रम का प्रसंग आया, वह बोल उठा, “यह असंभव है!”
व्यास जी ने कथा रोक दी, “पुत्र, यही तेरी होनी थी।”
राजा उतना ही स्वस्थ हुआ, जितना उसने विश्वास किया। किंतु एक बिंदु का अविश्वास शेष रहा और वही उसकी मृत्यु का कारण बना।
● सार: पहले बनती है तकदीर, फिर बनते हैं शरीर। कर्म हमारे हाथ में हैं, पर फल विधि के हाथों में है।
