■ सूर्यकांत उपाध्याय

एक 15 वर्षीय बालक ने अपने पिता से कहा, “पापा, पापा! दीदी के होने वाले ससुर और सास कल आ रहे हैं। अभी जीजाजी ने फोन पर बताया।”
दीदी अर्थात उसकी बड़ी बहन की सगाई कुछ ही दिन पहले एक अच्छे घर में तय हुई थी।
दीनदयाल जी पहले से ही कुछ उदास बैठे थे। उन्होंने धीरे से कहा-“हाँ बेटा, उनका कल ही फोन आया था। बोले थे कि वो एक-दो दिन में दहेज की बात करने आ रहे हैं। कह रहे थे, ‘दहेज के बारे में आपसे जरूरी बात करनी है।’
बड़ी मुश्किल से इतना अच्छा लड़का मिला था। अब अगर उनकी दहेज की माँग बहुत ज़्यादा हुई और मैं पूरी न कर सका, तो…?”
कहते-कहते उनकी आँखें भर आईं।
घर के प्रत्येक सदस्य के चेहरे पर चिंता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रही थीं। बेटी भी उदास हो गई।
अगले दिन समधी-समधिन आए। उनकी खूब आवभगत की गई।
कुछ देर बाद लड़के के पिता बोले- “दीनदयाल जी, अब काम की बात हो जाए?”
दीनदयाल जी की धड़कन तेज हो गई। बोले-“हाँ-हाँ समधी जी, जो आप हुकुम करें।”
लड़के के पिताजी ने धीरे से अपनी कुर्सी पास खिसकाई और कान में कहा- “दीनदयाल जी, मुझे दहेज के बारे में बात करनी है।”
दीनदयाल जी ने हाथ जोड़ते हुए, आँखों में नमी लिए कहा-“बताइए समधी जी, जो आपको उचित लगे, मैं पूरी कोशिश करूँगा।”
समधी जी ने धीरे से उनका हाथ थामते हुए कहा-“आप कन्यादान में कुछ दें या न दें, थोड़ा दें या ज़्यादा दें, मुझे सब स्वीकार है। पर कर्ज लेकर आप एक रुपया भी दहेज मत देना, वह मुझे स्वीकार नहीं। क्योंकि जो बेटी अपने पिता को कर्ज में डुबो दे, वैसी ‘कर्ज वाली लक्ष्मी’ मुझे स्वीकार नहीं। मुझे तो बिना कर्ज वाली बहू चाहिए जो मेरे घर आकर मेरी संपत्ति और सम्मान, दोनों को दुगुना कर दे।”
दीनदयाल जी की आँखें छलक पड़ीं। वे समधी जी से गले मिलकर बोले- “समधी जी, बिल्कुल ऐसा ही होगा।”
शिक्षा: कर्ज वाली लक्ष्मी न कोई विदा करे, न कोई स्वीकार करे।

वाह,
प्रेरणादायक एवं बहुत सुंदर