सावरकर जयंती विशेष ● आत्मन मिश्र

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वीर योद्धा और विचारक विनायक दामोदर सावरकर केवल एक क्रांतिकारी नहीं बल्कि राष्ट्र चेतना के प्रबल संवाहक थे। उन्होंने भारत की सुषुप्त सांस्कृतिक शक्ति को जाग्रत करने का संकल्प लिया और अपने जीवन, लेखन व चिंतन से राष्ट्रवाद को एक ठोस वैचारिक आधार प्रदान किया।
1923 में प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिंदुत्व: हू इज़ अ हिंदू?’ में सावरकर ने भारत को मात्र भौगोलिक सीमा नहीं बल्कि सांस्कृतिक एकता का प्रतीक बताया। उनके अनुसार भारत एक ऐसा राष्ट्र है, जिसकी आत्मा साझा परंपराओं, गौरवशाली इतिहास और सांस्कृतिक मूल्यों में निहित है। आज, जब भारत वैश्विक मंच पर अपनी सांस्कृतिक पहचान को पुनर्स्थापित कर रहा है, सावरकर की यह अवधारणा अत्यंत प्रासंगिक प्रतीत होती है।
सावरकर केवल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने सामाजिक असमानताओं, जातिवाद, छुआछूत और धार्मिक अंधविश्वास के विरुद्ध निरंतर संघर्ष किया। मूर्ति पूजा पर उनके विचार तर्कसम्मत थे और उनका उद्देश्य समाज को विवेकशील बनाना था। सामाजिक सुधार के लिए उनका लेखन और आंदोलन, आज भी सामाजिक न्याय की चर्चा में उल्लेखनीय स्थान रखता है।
सावरकर का मानना था कि राष्ट्र की सुरक्षा केवल भाषणों से नहीं बल्कि संगठित शक्ति से संभव है। उन्होंने युवाओं को सैन्य प्रशिक्षण की प्रेरणा दी और द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीयों की सेना में भर्ती का समर्थन किया ताकि भविष्य में भारत के पास एक दक्ष व राष्ट्रनिष्ठ सेना हो। उनका यह दृष्टिकोण आज भारत की रक्षा नीति, आत्मनिर्भर सैन्य उत्पादन और सीमा सुरक्षा के संदर्भ में अत्यंत सामयिक है।
सावरकर का स्पष्ट मत था, ‘जो व्यक्ति अपने देश की सीमाओं की रक्षा नहीं कर सकता, वह अपनी संस्कृति की भी रक्षा नहीं कर सकता।’ यह विचार आज के भारत में, आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के संदर्भ में, राष्ट्रीय चेतना को बल देता है।
सावरकर के लेखन में क्रांति और चेतना दोनों की गूंज सुनाई देती है। ‘हिंदुत्व’, ‘माझी जन्मठेप’ (जिसमें अंडमान की यातना का जीवंत वर्णन है), और ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ (जो ब्रिटिश शासन द्वारा प्रतिबंधित की गई) जैसी कृतियां आज भी नई पीढ़ी को राष्ट्र सेवा के लिए प्रेरित करती हैं।
आज जब भारत राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक आत्मबोध के प्रश्नों से जूझ रहा है, तब सावरकर का चिंतन और योगदान और भी प्रासंगिक हो जाता है। उन्हें केवल इतिहास की किताबों में सीमित करना उनके विचारों की सीमा रेखा खींचना होगा। वे एक जीवंत विचारधारा हैं, जो राष्ट्र निर्माण की प्रेरणा देती है।