● सूर्यकांत उपाध्याय

राजमहल के द्वार पर भारी भीड़ थी। एक फकीर सम्राट से भिक्षा माँगने आया था। सम्राट ने कहा, ‘जो भी चाहते हो, माँग लो।’ यह उसका नियम था कि दिन के पहले याचक की कोई भी इच्छा पूरी की जाती थी।
फकीर ने अपना छोटा-सा भिक्षा-पात्र आगे बढ़ाया और बोला, ‘महाराज, बस इसे स्वर्ण मुद्राओं से भर दीजिए।’
सम्राट ने मुस्कराते हुए कहा, ‘यह तो बहुत सरल है।’ किंतु जैसे ही मुद्राएँ उस पात्र में डाली जाने लगीं, एक विचित्र बात सामने आई। पात्र कभी भरता ही नहीं था! जितनी अधिक मुद्राएँ उसमें डाली जातीं, उतनी ही वह खाली प्रतीत होता।
सम्राट ने पूरा खजाना ख़ाली कर दिया, परंतु पात्र खाली ही रहा। उसने अपने आभूषण, संपत्ति, यहाँ तक कि निजी संग्रह भी उसमें डाल दिए, लेकिन वह अद्भुत पात्र मानो अतृप्त था।
थककर सम्राट ने कहा, ‘भिक्षु, यह पात्र साधारण नहीं है। इसे भरना मेरी सामर्थ्य के बाहर है। बताओ, इसका रहस्य क्या है?’
फकीर हँस पड़ा और बोला, ‘महाराज, कोई बड़ा रहस्य नहीं। मैं श्मशान से गुजर रहा था, वहाँ एक मनुष्य की खोपड़ी मिली। उसी से यह पात्र बनाया है। मनुष्य की खोपड़ी कभी नहीं भरती, इसलिए यह भिक्षा-पात्र भी कभी नहीं भर सकता।’
उसने आगे कहा, ‘धन से भरो, पद से या ज्ञान से, यह पात्र सदा खाली ही रहेगा क्योंकि यह वस्तुओं से भरने के लिए बना ही नहीं। मनुष्य की लोभ-तृष्णा का कोई अंत नहीं होता। उसी मृगतृष्णा में भागते-भागते उसका ही अंत हो जाता है।’
आत्मज्ञान के सत्य को न जानने के कारण ही मनुष्य जितना पाता है, उतना ही दरिद्र होता जाता है।
हृदय की इच्छाएँ कभी शांत नहीं होतीं, क्योंकि हृदय ईश्वर को पाने के लिए बना है। ‘ईश्वर के अतिरिक्त कोई सन्तोष नहीं। उसके सिवा और कुछ भी मनुष्य के हृदय को भर नहीं सकता।’

बहुत सुंदर एवं प्रेरक प्रसंग