● सूर्यकांत उपाध्याय

एक समय की बात है। एक ऋषि जंगल में बैठकर वर्षों से कठोर तपस्या कर रहे थे। उनका एक ही उद्देश्य था, अधिक से अधिक शक्तिशाली बनना।
दीर्घ तपस्या के बाद भगवान उनकी साधना से प्रसन्न हुए और आशीर्वादस्वरूप उन्हें अनेक दिव्य शक्तियाँ प्रदान कीं, जिनका उपयोग वे आवश्यकता पड़ने पर कर सकते थे।
ऋषि स्वभाव से विनम्र थे, परंतु इन शक्तियों के मिलने के बाद उनमें धीरे-धीरे अहंकार जागने लगा।
एक दिन वे जंगल से लौटकर अपने गाँव पहुँचे। कुछ समय बाद उन्हें किसी कार्य से शहर जाना था। मार्ग में एक नदी पड़ती थी, जिसे पार करने के लिए नावों की सुविधा उपलब्ध थी। जब वे नदी किनारे पहुँचे तो उन्होंने देखा कि दूसरे तट पर एक और ऋषि पेड़ के नीचे ध्यानमग्न बैठे हैं।
अपनी शक्ति दिखाने की इच्छा से प्रेरित होकर, उन्होंने तप से प्राप्त शक्ति का प्रयोग किया और बिना नाव के नदी पार कर ली। दूसरे तट पर पहुँचकर वे उस ऋषि के पास गए और गर्व से बोले, “क्या आपने देखा? मैंने अपनी शक्ति के बल पर नदी पार कर ली। क्या आप भी ऐसा कर सकते हैं?”
दूसरे ऋषि ने शांत भाव से उत्तर दिया,
“हाँ, मैं भी कर सकता हूँ। लेकिन क्या तुम्हें नहीं लगता कि एक छोटी-सी नदी पार करने के लिए अपनी मूल्यवान शक्ति का उपयोग व्यर्थ गया? यही शक्ति यदि तुम किसी जरूरतमंद की सहायता में लगाते तो उसका वास्तविक अर्थ सिद्ध होता। नदी पार करने के लिए तो तुम वहाँ खड़े नाव वाले को कुछ पैसे देकर भी पार जा सकते थे।”
पहले ऋषि को अपनी भूल का एहसास हुआ। उन्होंने नम्रता से क्षमा माँगी। दूसरे ऋषि ने मुस्कराते हुए कहा, “सच्ची शक्ति वही है, जो दूसरों के कल्याण में उपयोग हो, न कि अपने अहंकार के प्रदर्शन में।”
सीख:
जब हमें कोई शक्ति, प्रतिभा या सामर्थ्य मिले, तो उसका उपयोग दिखावे के लिए नहीं बल्कि दूसरों की भलाई के लिए करना चाहिए। यही सच्ची तपस्या और असली शक्ति है।

उत्तम विचार