● सूर्यकांत उपाध्याय

पितामह भीष्म ने अपनी शस्त्रविद्या का प्रयोग करते हुए सोने के पांच अचूक तीर निकाले और उन्हें अभिमंत्रित करके बोले,
“दुर्योधन! तुम व्यर्थ में संदेह करते हो। इन बाणों से कोई नहीं बच सकता। कल का दिन युद्ध का अंतिम दिन होगा।
एक ही दिन में मैं इन पांचों बाणों से पांडवों का संहार कर दूंगा। तब पांडवों के मरते ही युद्ध का परिणाम तुम्हारे पक्ष में होगा।”
पितामह भीष्म की बात सुनकर दुर्योधन प्रसन्न तो हुआ पर अगले ही क्षण उसके मन में पितामह के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया। कपटी दुर्योधन को भीष्म की बातों में भी छल-कपट दिखने लगे।
दुर्योधन ने भीष्म से कहा,“पितामह! आपकी योजना उत्तम है, किन्तु मुझे संदेह है कि आप इतनी सरलता से पांडवों का वध कर पाएंगे। हो सकता है कि मोहवश या प्रेमवश आप उन्हें न मार सकें। अतः आप इन बाणों को मुझे दे दें। मैं कल युद्धभूमि में आपको ये पांचों बाण दूंगा और आपके कर्तव्य की स्मृति दिलाऊंगा। तब आप पांडवों का वध मेरे सामने कीजिएगा।”
दुर्योधन की बात सुनकर पितामह भीष्म ने पांचों अभिमंत्रित बाण उसे दे दिए। दुर्योधन अपनी संभावित जीत से अत्यंत प्रसन्न हुआ और बाण लेकर अपने शिविर में चला गया।
भीष्म के शिविर के पास पहरा दे रहे पांडवों के एक गुप्तचर ने यह सब सुन लिया। उसने महाराज युधिष्ठिर को सोने के बाणों की बात बताई। उस समय भगवान श्रीकृष्ण भी वहीं उपस्थित थे। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा,
“हे गोविंद! पितामह के इन तीरों का प्रतिकार हम कैसे करें?”
यह सुनकर श्रीकृष्ण युधिष्ठिर के साथ तुरंत अर्जुन के शिविर पहुँचे और समस्त घटना सुनाई। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा,
“पार्थ! तुम्हें दुर्योधन से वे पांचों बाण माँगने होंगे।”
अर्जुन ने अचंभित होकर पूछा,“दुर्योधन भला वे बाण मुझे क्यों देगा?”
तब श्रीकृष्ण ने उसे स्मरण कराया,
“क्या तुम्हें याद नहीं, एक बार तुमने दुर्योधन को यक्षों और गंधर्वों के आक्रमण से बचाया था? उस समय दुर्योधन ने प्रसन्न होकर वचन दिया था कि तुम उससे कोई भी वस्तु मांग सकते हो। तब तुमने कुछ नहीं मांगा था। अब वही समय आ गया है।”
श्रीकृष्ण की बात सुनकर अर्जुन को सब स्मरण हो आया। युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर वह दुर्योधन के शिविर पहुँचा।
दुर्योधन अचानक अर्जुन को देखकर शंकित हुआ, पर अपनी शंका छिपाते हुए हँसकर बोला,“आओ अर्जुन, आओ! क्षमा माँगने आए हो क्या? या अपने पितामह की वीरता से भयभीत होकर सहायता माँगने आए हो? कहो, इस रात्रि में आने का क्या प्रयोजन है?”
अर्जुन ने शांत भाव से कहा,“भ्राता दुर्योधन! प्रणाम! आपने ठीक समझा, मैं आपसे याचना करने आया हूँ। परंतु, मांगने से पहले ही आप उसे देने के लिए वचनबद्ध हैं।”
दुर्योधन हँसते हुए बोला,“मैं विवश हूँ, अर्जुन? याचक विवश होता है, दाता नहीं। फिर भी कहो, क्या चाहिए तुम्हें?”
अर्जुन ने कहा,“मुझे वे पांचों बाण चाहिए, जो पितामह ने तुम्हें दिए हैं।”
दुर्योधन ने मना कर दिया। तब अर्जुन ने उसे क्षत्रिय धर्म स्मरण कराते हुए बताया कि उसने स्वयं वचन दिया था कि प्राणरक्षा के बदले वह कोई भी बहुमूल्य वस्तु अर्जुन को देगा।
दुर्योधन बोला,“तुम कुछ और मांग लो, ये बाण मैं नहीं दे सकता।”
अर्जुन ने उत्तर दिया,“यदि आप अपना वचन निभाना नहीं चाहते तो कोई बात नहीं, भ्राता। अब आपके पास ऐसा कुछ बचा भी नहीं है जो मांगा जाए। सामर्थ्य के अभाव में आपको पितामह के बाणों की आवश्यकता ही क्या है? ठीक है, मैं चलता हूँ।”
अर्जुन के इन कटाक्षों से दुर्योधन दुविधा में पड़ गया। उसने कहा,“रुको अर्जुन! किसके पास सामर्थ्य नहीं है? हम सौ हैं, तुम केवल पांच!”
फिर, अनिच्छा के बावजूद दुर्योधन ने पांचों बाण अर्जुन को दे दिए। अर्जुन वे दिव्य बाण लेकर अपने शिविर में लौट आया।
इस प्रकार भीष्म से बाण लेकर दुर्योधन ने जो भूल की थी, वही उसके लिए घातक सिद्ध हुई। उन बाणों के अभाव में पांडवों की मृत्यु टल गई और अंततः महाभारत के युद्ध में पांडवों की विजय हुई।
