
■ हिमांशु राज़
कहते हैं कुछ लोग लिखना सीखते हैं, और कुछ लोग शब्द लेकर जन्म लेते हैं। समीर उन्हीं विरली आत्माओं में से हैं जिनके भीतर लेखन किसी कला की तरह नहीं, एक संस्कार की तरह रचा-बसा है। यह कोई संयोग नहीं कि उनके पिता अनजान साहेब गीतों के आसमान पर चमकते सितारे थे क्योंकि जिस घर की हवाओं में शब्द बसते हों, वहां कविता सांस लेती है। समीर कहते हैं “पोएट्री मेरी जेनेटिक प्रॉब्लम रही है, शायद मेरे पिता अनजान नहीं होते तो मैं शायर बनता ही नहीं।”
लेकिन विरासत केवल सौगात नहीं, कभी-कभी बोझ भी होती है। वे याद करते हैं मुंबई की सर्जरी के बहाने जब वे पहली बार पिता से मिले तो उम्र मात्र 23 वर्ष थी। इतने वर्षों के अंतराल में पिता से तीन बार मिल पाना उनकी जिंदगी का जैसे कोई अधूरा अध्याय था। उसी दूरी में भावनाओं का एक नया संगीत जन्म लेता है। अनजान साहेब ने पहली मुलाकात में बेटे से कहा “कुछ भी बन जाना,गीतकार मत बनना।” यह वाक्य जैसे आशीर्वाद भी था और परीक्षा का प्रारंभ भी।
पर समीर तो दिल की ज़मीन पर चलने वाले यात्री थे। उन्होंने बैंक की नौकरी छोड़ी, परिवार के आँसू देखे, और उस अंधे विश्वास को पकड़े रखा कि दिल की आवाज़ कभी गलत नहीं होती। संघर्ष का वह आरंभिक दौर उन्हें तपाता रहा, गढ़ता रहा, पर तोड़ नहीं सका। कहते हैं, “अगर मैं बीते दो वर्षों का दर्द बयान कर दूँ, तो यकीन नहीं होगा कि वही व्यक्ति आज भी ज़िंदगी के गीत लिखता है।”
मुंबई में उनके और पिता के बीच एक संवाद हुआ जिसने उनके जीवन को दिशा दे दी। अनजान साहेब ने पूछा, “क्या सोचकर आए हो? साहिर या बक्शी बनने? जान लो,जन्नत देखने के लिए मरना पड़ता है।” और समीर ने जवाब दिया, “जन्नत देखनी है तो मरना पड़ेगा ही।” यहीं से गीतकार समीर का जन्म हुआ। पिता ने उस दिन उन्हें रचनात्मक बल नहीं, जीवन-दर्शन दिया।
आज वे कहते हैं, “अब दिमाग से काम होता है, पहले दिल से होता था। इसलिए अब बातें दिल तक पहुंचती नहीं।” यही वह पीड़ा है जिसे केवल अनुभवी कलाकार समझ सकता है। उन्होंने चार दशक में सिनेमा और संगीत के हर बदलते रंग को देखा, अपनाया, और खुद को समय के साथ ढाला। चाहे ‘चार बजे गए लेकिन पार्टी अभी बाकी है’ हो या ‘अनारकली डिस्को चली’ हर गीत में उनकी कलम ने पीढ़ियों के बीच पुल बनाया।
एआई के दौर पर उनकी दृष्टि अनोखी है। वे कहते हैं, “एआई केवल व्यक्त पर काम कर सकती है पर अव्यक्त पर नहीं। ताजमहल तो बना दोगे,पर मुमताज कहां से लाओगे?” यह पंक्ति सिद्ध करती है कि समीर तकनीक को प्रतिद्वंद्वी नहीं, साधन मानते हैं लेकिन मानवीय भाव की कोई नकल नहीं हो सकती।
व्यक्तिगत जीवन में वे अपने को एक जिम्मेदार पिता और सच्चे पति के रूप में देखना चाहते हैं, जिनकी निष्ठा घर और काम दोनों के प्रति समान रही। “जो कुछ भी हासिल किया, उसमें परिवार का सबसे बड़ा हाथ है,” वे स्वीकार करते हैं। आज उनकी बेटियां अपने संसार में रम चुकी हैं, और बेटा संगीत के उसी पथ पर अग्रसर है जिस पर कभी पिता और दादा चले थे।
और जब बनारस की बात आती है, तो समीर के चेहरे पर अलग ही उजास उतर आता है “बनारस है तो समीर है। गंगा और बाबा विश्वनाथ की भूमि ने मुझे बार-बार पुनर्जन्म दिया है। मैं उस धरती का ऋणी हूं।”
शब्दों की साधना से लेकर आत्मा की तपस्या तक, समीर का जीवन इस बात का प्रमाण है कि रचनाकार बनता नहीं, उसे ऊपरवाला बनाकर भेजता है। और शायद सच भी यही है, वह जो शब्द रचता है,खुद शब्दों से रचा जाता है।
