■ सूर्यकांत उपाध्याय

एक बार श्रीहरि (विष्णु) के मन में घोर तपस्या करने की इच्छा जाग्रत हुई। वे इसके लिए उपयुक्त स्थान की तलाश में इधर-उधर भटकने लगे।
खोजते-खोजते उन्हें एक स्थान अत्यंत मनोनुकूल लगा, जो केदार भूमि के समीप नीलकंठ पर्वत के निकट था। यह स्थान उन्हें अत्यंत शांत, अनुकूल और प्रिय प्रतीत हुआ।
वे जानते थे कि यह स्थान भगवान शंकर की स्थली है। अतः उन्होंने सोचा कि बिना शिवजी की आज्ञा लिए यहाँ रहना उचित नहीं होगा। श्रीहरि जानते थे कि यदि कोई रोता हुआ बालक अनुमति मांगे तो भोलेनाथ कभी मना नहीं करेंगे।
इसलिए उन्होंने बालक का रूप धारण कर पृथ्वी पर अवतार लिया और रोने लगे। माँ पार्वती से यह दृश्य देखा नहीं गया। वे भगवान शिव के साथ उस बालक के समीप पहुँचीं और उससे रोने का कारण पूछने लगीं।
बालक रूप में भगवान विष्णु ने बताया कि वे तप करना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें यह स्थान चाहिए। भगवान शिव और माँ पार्वती ने प्रसन्न होकर उन्हें वह स्थान दे दिया। तब भगवान विष्णु घोर तपस्या में लीन हो गए।
कई वर्षों तक तप चलता रहा। घोर हिमपात होने के कारण बालक रूपी विष्णु बर्फ से पूरी तरह ढक गए पर उन्हें इसकी तनिक भी सुध नहीं थी।
बैकुंठ से माँ लक्ष्मी अपने पति की यह अवस्था देखकर अत्यंत व्यथित हो उठीं। वे उनके कष्ट को सहन न कर सकीं और उनके समीप आकर ‘बद्री’ अर्थात् बेर का वृक्ष बन गईं ताकि हिमपात से उनकी रक्षा हो सके।
कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो उन्होंने देखा कि वे स्वयं भी बर्फ से ढके हैं और वह वृक्ष भी। क्षणभर में वे समझ गए कि माँ लक्ष्मी ने ही वृक्ष का रूप धारण कर उनकी रक्षा की है।
तब भगवान विष्णु ने कहा, “हे देवी! तुमने मेरे साथ इस स्थान पर तप किया है, अतः इस स्थान पर तुम्हारी भी मेरी साथ पूजा की जाएगी। तुमने बद्री का वृक्ष बनकर मेरी रक्षा की, इसलिए यह धाम ‘बद्रीनाथ धाम’ कहलाएगा।”
यहाँ भगवान विष्णु की मूर्ति शालिग्राम शिला से निर्मित है, जिसकी चार भुजाएँ हैं। कहा जाता है कि देवताओं ने इसे नारदकुंड से निकालकर यहाँ स्थापित किया था।
इस धाम में अखंड ज्योति दीपक जलता रहता है और नर-नारायण की भी पूजा होती है। साथ ही गंगा की बारह धाराओं में से एक धारा अलकनंदा के दर्शन का भी पुण्य प्राप्त होता है।
