■ सूर्यकांत उपाध्याय

एक गांव में एक जमींदार था। उसके कई नौकरों में जग्गू भी था। गांव से लगी बस्ती में बाकी मजदूरों के साथ जग्गू भी अपने पांच लड़कों के साथ रहता था। जग्गू की पत्नी बहुत पहले गुजर गई थी। एक झोंपड़ी में वह बच्चों को पाल रहा था। बच्चे बड़े होते गये और जमींदार के घर नौकरी में लगते गये।
सभी मजदूरों को शाम को मजूरी मिलती। जग्गू और उसके लड़के चना और गुड़ लेते थे। चना भूनकर गुड़ के साथ खा लेते थे। बस्ती वालों ने जग्गू को बड़े लड़के की शादी कर देने की सलाह दी। उसकी शादी हो गई और कुछ दिन बाद गौना भी आ गया।
उस दिन जग्गू की झोंपड़ी के सामने बड़ी बमचक मची। बहुत लोग इकट्ठा हुए नई बहू को देखने। फिर धीरे-धीरे भीड़ छंटी। आदमी काम पर चले गये और औरतें अपने-अपने घर। जाते-जाते एक बुढ़िया बहू से कहती गई, “पास ही घर है। किसी चीज की जरूरत हो तो संकोच मत करना, ले जाना।”
सबके जाने के बाद बहू ने घूंघट उठाकर अपनी ससुराल को देखा तो उसका कलेजा मुंह को आ गया। जर्जर सी झोपड़ी, खूंटी पर टंगी कुछ पोटलियां और झोपड़ी के बाहर बने छह चूल्हे (जग्गू और उसके सभी बच्चे अलग-अलग चना भूनते थे)। बहू का मन हुआ कि उठे और सरपट अपने गांव भाग चले। पर अचानक उसे सोचकर धक्का लगा, “वहां कौन से नूर गड़े हैं? मां है नहीं। भाई-भौजाई के राज में नौकरानी जैसी जिंदगी ही तो गुजारनी होगी।”
यह सोचते हुए वह बुक्का फाड़कर रोने लगी। रोते-रोते थककर शांत हुई। मन में कुछ सोचा। पड़ोसन के घर जाकर पूछा, “अम्मा, एक झाड़ू मिलेगा?”
बुढ़िया अम्मा ने झाड़ू, गोबर और मिट्टी दी और साथ में अपनी पोती को भेज दिया। वापस आकर बहू ने एक चूल्हा छोड़ बाकी सभी चूल्हे फोड़ दिये। सफाई कर गोबर-मिट्टी से झोपड़ी और दुआर लीपा। फिर उसने सभी पोटलियों के चने एक साथ किए और अम्मा के घर जाकर चना पीसा। अम्मा ने उसे साग और चटनी भी दी।
वापस आकर बहू ने चने के आटे की रोटियां बनाई और इंतजार करने लगी। जग्गू और उसके लड़के जब लौटे तो एक ही चूल्हा देख भड़क गये। चिल्लाने लगे कि इसने तो आते ही सत्यानाश कर दिया। अपने आदमी का छोड़ बाकी सब का चूल्हा फोड़ दिया!
झगड़े की आवाज सुनकर बहू झोंपड़ी से बाहर निकली और बोली, “आप लोग हाथ-मुंह धोकर बैठिये, मैं खाना निकालती हूं।”
सब अचकचा गये! हाथ-मुंह धोकर बैठे। बहू ने पत्तल पर खाना परोसा- रोटी, साग, चटनी।
मुद्दत बाद उन्हें ऐसा खाना मिला था। खाकर अपनी-अपनी कथरी लेकर वे सोने चले गये।
सुबह काम पर जाते समय बहू ने उन्हें एक-एक रोटी और गुड़ दिया। जाते समय उसने जग्गू से पूछा, “बाबूजी, मालिक आप लोगों को चना और गुड़ ही देता है क्या?”
जग्गू ने बताया कि मिलता तो सभी अन्न है, पर वे चना-गुड़ ही लेते हैं, आसान रहता है खाने में।
बहू ने समझाया कि सब अलग-अलग प्रकार का अनाज लिया करें। देवर ने बताया कि उसका काम लकड़ी चीरना है। बहू ने उसे घर के ईंधन के लिए भी कुछ लकड़ी लाने को कहा।
बहू सबकी मजदूरी के अनाज में से एक-एक मुठ्ठी अलग रखती। उससे बनिये की दुकान से बाकी जरूरत की चीजें लाती। जग्गू की गृहस्थी धड़ल्ले से चल पड़ी।
एक दिन सभी भाइयों और बाप ने तालाब की मिट्टी से झोपड़ी के आगे बाड़ बनाया। बहू के गुण गांव में चर्चित होने लगे। बात जमींदार तक पहुँची। वह कभी-कभी बस्ती में आया करता था। आज वह जग्गू के घर उसकी बहू को आशीर्वाद देने आया।
बहू ने पैर छूकर प्रणाम किया तो जमींदार ने उसे एक हार दिया। हार माथे से लगाकर बहू ने कहा, “मालिक, यह हमारे किस काम आयेगा? इससे अच्छा होता कि मालिक हमें झोपड़ी के दायें-बायें चार लाठी जमीन दे देते तो एक कोठरी बन जाती।”
बहू की चतुराई पर जमींदार हंस पड़ा और बोला, “ठीक, जमीन तो जग्गू को मिलेगी ही, पर यह हार तो तुम्हारा हुआ।”
किसी ने सच ही कहा है, औरत चाहे तो घर को स्वर्ग बना दे या चाहे तो नर्क?
