● संकलन : सूर्यकांत उपाध्याय

एक बार की बात है। देवऋषि नारद और ऋषि अंगिरा पृथ्वी पर भ्रमण कर रहे थे। रास्ते में उनकी नजर एक मिठाई की दुकान पर पड़ी। दुकान के पास ही जूठी पत्तलों का ढेर लगा हुआ था। उस जूठन को खाने के लिए जैसे ही एक कुत्ता आता है, वैसे ही उस दुकान का मालिक उसको जोर से डंडा मारता है। डंडे की मार खा कर कुत्ता चीखता हुआ वहां से चला गया।
यह दृश्य देख कर, देवऋषि को हंसी आ गई। ऋषि अंगिरा ने उनसे हंसी का कारण पूछा।
नारद बोले, ‘हे ऋषिवर ! यह दुकान पहले एक कंजूस व्यक्ति की ही थी। अपनी जिंदगी में उसने बहुत सारा पैसा इकट्ठा किया और इस जन्म में वो कुत्ता बन कर पैदा हुआ और यह दुकान मालिक उसी का पुत्र है।’
नारद बोले ‘जिसके लिए उसने बेशुमार धन इकट्ठा किया। आज उसी के हाथों से, उसे जूठा भोजन भी नहीं मिल सका। कर्मफल के इस खेल को देखकर मुझे हंसी आ गई। मनुष्य को अपने शुभ और अशुभ कर्मों का फल जरूर मिलता है। बेशक इस लिए उसे जन्मों-जन्मों की यात्रा क्यों न करनी पड़े।’