● सूर्यकांत उपाध्याय

कभी बड़े पुलिस कमिश्नर रहे एक बुजुर्ग अब कॉलोनी के साधारण से घर में रहते थे। उन्हें अपनी पुरानी पहचान पर गर्व इतना था कि कॉलोनी वालों से नज़र तक मिलाना उन्हें गंवारा न था।
हर शाम पार्क की बेंच पर बैठते लेकिन बोलते सिर्फ़ अपने बारे में ‘मैं कमिश्नर था… मेरा बंगला… मेरा रुतबा…’
सामने बैठा एक और बुजुर्ग चुपचाप सुनता रहा।
कई दिन बाद वह बुजुर्ग मुस्कराकर बोला, ‘कमिश्नर साहब, जलता बल्ब चाहे १० वॉट का हो या १०० का, फ्यूज होते ही सब एक से हो जाते हैं। मैं दो बार सांसद रहा हूं… पर यहां किसी को नहीं बताया।
कमिश्नर चौंके।
बुजुर्ग आगे बोले, ‘वो वर्मा जी रेलवे के जनरल मैनेजर थे, राव साहब आर्मी से लेफ्टिनेंट जनरल और कोने में शिवाजी जी ISRO के चेयरमैन, पर किसी ने कभी डींगे नहीं मारीं।
हम सब यहां फ्यूज़ बल्ब हैं। पद, पावर, शोहरत अब सिर्फ़ यादें हैं। शतरंज का खेल हो या जीवन, अंत में राजा-प्यादा सब एक ही डिब्बे में बंद हो जाते हैं। अंत में मिलता है बस एक ही प्रमाणपत्र ‘मृत्यु प्रमाण पत्र।’
इसलिए मानव होकर मानवता में जिएं। अहंकार, पद और स्वार्थ से ऊपर उठें।
सेवा नहीं कर सकते, तो कम से कम किसी का अहित तो न करें क्योंकि ऊपर बैठा परम निरीक्षक सब देख रहा है, और उसका न्याय अटल है।