● सूर्यकांत उपाध्याय

प्रसिद्ध भारतीय संगीतज्ञ पं. ओंकारनाथ ठाकुर एक बार इटली में तानाशाह मुसोलिनी के मेहमान बने। भोजन के दौरान मुसोलिनी ने व्यंग्य करते हुए कहा, ‘कृष्ण की बांसुरी की धुन से जंगली जानवर आते थे, गायें नाचने लगती थीं, यह मुझे समझ नहीं आता कि संगीत से ऐसा कैसे संभव है?’
पं. ठाकुर ने विनम्रता से उत्तर दिया, ‘कृष्ण जैसी मेरी सामर्थ्य नहीं पर जो थोड़ा-बहुत जानता हूं, वह आपको दिखा सकता हूं।’
ठाकुर ने हाथ में मौजूद कांटे-चम्मच और सामने रखी चीनी की प्यालियों को बजाना शुरू किया। कुछ ही देर में मुसोलिनी की आंखें झपकने लगीं और उसका सिर टेबल से टकराने लगा। ध्वनि की लय इतनी प्रभावशाली थी कि वह खुद को रोक नहीं पाया। अंततः उसे रुकवाना पड़ा लेकिन तब तक उसका सिर लहूलुहान हो चुका था।
बाद में मुसोलिनी ने अपनी पुस्तक में लिखा, ‘मैं अपने वक्तव्य के लिए क्षमा चाहता हूं। यदि एक साधारण संगीतज्ञ की ध्वनि इतनी प्रभावी हो सकती है तो कृष्ण की बांसुरी से जंगली जानवर आना असंभव नहीं लगता।’
ध्वनि की तरंगें चित्त की सबसे सूक्ष्म तरंगों को स्पर्श करती हैं। संगीत केवल मनोरंजन नहीं, चेतना को प्रभावित करने वाली एक सूक्ष्म और दिव्य शक्ति है।