● सूर्यकांत उपाध्याय

माँ की मृत्यु के बाद जब तेरहवीं भी सम्पन्न हो गई, तब नम आँखों से चारु ने अपने भाई से विदा ली।
“सब काम पूरे हो गए भैया, माँ हमें छोड़ गई… अब मैं चलती हूँ भैया!” आँसुओं के कारण उसके मुँह से बस इतना ही निकल पाया।
“रुक चारु, अभी एक काम बाकी है… ये ले, माँ की अलमारी खोल और जो सामान चाहिए, वो ले जा।” कहते हुए भैया ने चाबी पकड़ाई।
“नहीं भाभी, ये आपका हक है। आप ही खोलिए।” चारु ने चाबी भाभी को थमाते हुए कहा। भाभी ने भैया की स्वीकृति पर अलमारी खोली।
“देख, ये माँ के कीमती गहने और कपड़े हैं। तुझे जो ले जाना है, ले जा क्योंकि माँ की चीज़ों पर बेटी का हक़ सबसे ज़्यादा होता है।” भैया बोले।
“भैया, पर मैंने तो हमेशा यहाँ इन गहनों और कपड़ों से ज़्यादा कीमती एक चीज़ देखी है… मुझे तो वही चाहिए!” चारु बोली।
“चारु, हमने माँ की अलमारी को छुआ तक नहीं है। जो कुछ है, तेरे सामने है। तू किस कीमती चीज़ की बात कर रही है?” भैया ने पूछा।
“भैया, इन गहनों और कपड़ों पर तो भाभी का हक है क्योंकि उन्होंने माँ की सेवा बहू नहीं, बेटी बनकर की है। मुझे तो वो कीमती चीज़ चाहिए, जो हर बहन और बेटी चाहती है!” चारु ने कहा।
“मैं समझ गई दीदी, आपको किस चीज़ की चाह है। दीदी, आप फ़िक्र मत कीजिए, माँ जी के बाद भी आपका यह मायका हमेशा सलामत रहेगा। पर फिर भी, माँ जी की निशानी समझकर कुछ तो ले लीजिए।”
भाभी भरी आँखों से बोलीं, तो चारु रोते हुए उनके गले लग गई।
“भाभी, जब मेरा मायका सलामत है मेरे भाई और भाभी के रूप में, तो मुझे किसी और निशानी की ज़रूरत नहीं। फिर भी, अगर आप कहती हैं, तो मैं ये हँसते-खेलते मायके की तस्वीर ले जाना चाहूँगी, जो मुझे हमेशा यह एहसास कराएगी कि मेरी माँ भले न हो, पर मायका है!”
चारु ने पूरे परिवार की तस्वीर उठाई और नम आँखों से सबको विदा ली।