◆ श्रीकृष्ण जयंती विशेष
■ अभय मिश्र

किसी के लिए सखा, किसी के लिए गुरु तो किसी के लिए बालक रूप में मित्रवत, पूजनीय व वंदनीय व्यक्तित्व एक ही है। श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व जीवन जीने की कला सिखाता है। दरअसल, भगवान कृष्ण का चित्र चित्त को व्यवस्थित करने का उत्तम उदाहरण है। चित्र से चित्त और चित्त से चरित्र तक की यात्रा महत्वपूर्ण है। विशेषकर श्रीकृष्ण का यह चित्र एक गहरा संदेश देता है।
भक्तों के भगवान, गोपियों के नटखट कान्हा, योगियों के योगेश्वर, राधा के प्रेम, रुक्मिणी के स्वामी, अर्जुन के सारथी और विश्वरूप तक!
सबसे पहले यह समझें कि कृष्ण अर्थात चैतन्य, चेतना या जिसे हम परम् ऊर्जा का स्रोत कह सकते हैं। इस चित्र में उपवन की हरियाली मां प्रकृति की द्योतक है। गाय सात्विकता की प्रतीक है। यह संदेश है कि जहां सात्विकता होगी वहां कृष्ण चैतन्य की ऊर्जा सक्रिय हो उठेगी। उनके होठों पर बांसुरी के स्वर हैं जो कहते हैं कि जीवन एक संगीत है। सारे गम पीयो लेकिन ईश्वर प्रदत्त जीवन में सरगम बनी रहे। इस संगीत के विविध स्वरों का आनंद लीजिए। शिकायत मत करिए। जो, जितना मिला है, उसमें संतुष्ट रहते हुए अपना कार्य करते रहिए। भविष्य की योजना बनाना बिल्कुल ठीक है। आवश्यक है, लेकिन उसी में मत उलझ जाइए। कुछ उसपर भी ध्यान देना है, जो हमें पहले से मिला हुआ है अर्थात जीवन संगीत।
कृष्ण के मुकुट पर मोरपंख शोभित है। कभी ध्यान से देखेंगे तो मोर पंख के सेंटर में, केंद्र में एक नेत्र का आभास होता है। ये हमारे आज्ञा चक्र की ओर इशारा करता है कि हमें आज्ञा चक्र को एक्टिव करना है। वही आज्ञा चक्र योग विज्ञान में जहां पिनियल ग्रन्थि बताई गई है।
अब कृष्ण का चेहरा देखिए। नेत्र आनंदित हैं। उनके चेहरे पर जो मुस्कान है, उसे स्मित हास्य कहते हैं। वैसे भी कभी आप आईने के सामने खड़े होकर अपना चेहरा देखिये। फिर धीरे से मुस्कुराइये। आपका चेहरा खिल उठेगा! आंखें भी बोल उठेंगी।
अकारण खुश रहना परमात्मा की ओर बढ़ने का पहला कदम है।
फिर कृष्ण के चरणों को देखिए। एक पैर सीधा और दूसरा पैर रिलैक्स अवस्था में है। इसका गहरा अर्थ है। सीधा पैर यानी घर, गृहस्थी, नौकरी-व्यापार आदि में दृढ़ता से विश्वासपूर्वक अपना काम करते रहने का संदेश है। कर्मयोग का संदेश। वहीं रिलैक्स वाला पैर जोकि लगभग नृत्य की मुद्रा में है, इस बात का सूचक है कि हर काम का आनंद लेना है। जैसे हर कार्य प्रभु का ही काम है। कार्य, कार्य करनेवाला और कार्य करवानेवाला भी कृष्ण ही हैं। निष्काम कर्म करते रहिए। फल की आकांक्षा के बिना किया गया कर्म ही निष्काम कर्म कहा गया है। भगवद्गीता (५:१२) कहती है-
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अर्थात
कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्ति रूपी शांति को प्राप्त होता है।
इसलिए सब उन्हीं कृष्ण को, राम को, महादेव को, मां भगवती को जिस भी साकार-निराकार परमात्मा पर आप विश्वास करते हैं, उसको सबकुछ सौंपकर ‘काम करते रहो नाम भजते रहो!’ और यह भी जानने का प्रयास करते रहो कि भगवान कहां मिलेंगे?
नारद संहिता में स्वयं भगवान् ने बताया है कि वे कहां रहते हैं?
भगवान कहते हैं-
‘नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वा।
मद्भक्ता: यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।’
अर्थात
हे नारद ! न तो मैं वैकुंठ में रहता हूं और न योगियों के हृदय में, मैं तो वहां निवास करता हूं, जहां मेरे भक्त-जन कीर्तन करते हैं। अर्थात् भजन के द्वारा ईश्वर को सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है।
वहीं श्रीरामचरित मानस में पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी आह्वान करते हुए लिखते हैं-
काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥
अर्थात
जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह है, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, न दम्भ और न माया ही है- हे रघुराज! आप उनके हृदय में निवास कीजिए॥
।। हरि:शरणम् ।।