● सूर्यकांत उपाध्याय

महाभारत केवल युद्ध की गाथा नहीं बल्कि जीवन के गूढ़ सत्यों का भंडार है। इसमें एक प्रसंग है, जब महान धनुर्धर कर्ण अपने जीवन की पीड़ा लेकर भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष उपस्थित होते हैं।
कर्ण ने कहा, ‘जन्म लेते ही माँ ने मुझे त्याग दिया। शिक्षा से वंचित रहा, अपमान और श्राप मिले। द्रौपदी ने अस्वीकार किया, गुरुजन ने क्षत्रिय न मानकर दूर कर दिया। मेरे जीवन में जो सम्मान और सहारा मिला, वह केवल दुर्योधन की दानशीलता से मिला। तो फिर मैं उसका साथ दूँ, इसमें अन्याय कहाँ है?’
कृष्ण ने धैर्यपूर्वक उत्तर दिया, ‘कर्ण, मेरा जन्म कारागार में हुआ। जन्म लेते ही माता-पिता से अलग कर दिया गया। शिक्षा देर से मिली, जीवनभर मुझे छल-कपट का प्रतीक कहा गया। अपने समाज को बार-बार पलायन करना पड़ा। मेरे हिस्से में भी अपमान और अस्वीकृति ही आई।’
फिर भी कृष्ण ने एक शाश्वत सत्य प्रकट किया। कृष्ण बोले, ‘जीवन किसी के लिए आसान या न्यायपूर्ण नहीं होता। हर किसी को कठिनाइयाँ, पीड़ा और अन्याय सहना पड़ता है। परंतु यह पीड़ा हमें अधर्म का साथ देने का अधिकार नहीं देती। धर्म क्या है, यह हमारा विवेक जानता है। जीवन की अन्यायपूर्ण परिस्थितियाँ हमें परखती हैं कि हम कौन हैं और हमारा मार्ग क्या है। सदैव स्मरण रखना, भाग्य हमारे पहने हुए जूतों से नहीं बल्कि हमारे उठाए हुए कदमों से बनता है।’
सीख: यह कथा हमें सिखाती है कि परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी विपरीत क्यों न हों, धर्म का मार्ग ही अंततः कल्याणकारी है।