
वेद, ब्रह्मण, आरण्यक, उपनिषद, पुराण आदि भारत के प्राचीन से प्राचीनतम धरोहरों को, ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति को, सृष्टि की रहस्यमयी दुनिया को अपने में इस तरह समेटे है जिसका ज्ञान हो जाने पर मनुष्य, जैसे अपनी दिशा ही भूल बैठे और खो जाए किसी अथाह से एक अलग ही दुनिया में जहाँ किसी भी चीज का कोई ओर-छोर ही ना हो, जहाँ जाना विशेष हो जाना होता हो और इससे भी विशेष कि विशेष होने के बाद भी सृष्टि में शून्य से विलग नहीं हो पाना हो। जिस भांति ऋग्वेद के दसवें मंडल के 129वें सूक्त, नासदीय सूक्त के सातों मंत्रों में जीवन के रहस्यमय परिस्थितियों, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, अस्तित्व आदि का जिक्र है और बड़े विषद रूप में है, बावजूद इसके आश्चर्य यह कि अंत में सब कुछ होकर भी कुछ नहीं होने की बात है।
कौन? कैसे? प्रश्नों से रहस्यमय परिस्थितियों को और अधिक रहस्यमय में बदल देने की बात है ताकि भविष्य के गर्त में क्या है जिसके हेतु आने वाला समय, आने वाले लोग भी अधिक से अधिक समृद्ध तरीके से रहस्यों से पर्दा उठा सकें पर ऋग्वेद के इस सूक्त में जो भी बातें हैं यथा-
‘तब न तो सत् था न ही असत् था, अंतरिक्ष, आकाश, जीवन, मृत्यु, दिन-रात, जैसी भी कोई बातें नहीं थीं। तब बस और बस तमस था, अज्ञानता, अंधेरा।
“तम् आसीत्तमसा गुहमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वऽइदम्। (ऋ.10/129/03)।
शून्य और शून्य से बिलग की बात का रहस्य यहाँ भी ज्यों का त्यों बना हुआ है पर हमारे वेदों की संपन्नता पर अगर गौर किया जाए तो कहा जा सकता है कि इससे इतर कुछ था ही नहीं या है भी नहीं और शायद आगे होगा भी नहीं। वेद-पुराण जैसी थाती हमारे लिए हर क्षेत्र में हमारे संपन्नता को दर्शाते हैं। भारतीय कला और संस्कृति के लिए भी।

भारतीय कला के प्राचीनता एवं संपन्नता को समझने हेतु पाश्चात्य लिखित पुस्तकों से बिलग प्राचीन भारतीय धार्मिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक, वेदों, सहित धरोहरों से भरे ग्रंथों को समझना होगा, भरोसा करना होगा अपनों पर। कला समय के साथ भले ही अपने स्वरुप को बदल ले पर बिना कला जीवन को सोचना बेमानी साबित होगा। सृष्टि के सृजन के साथ ही जुड़ी हुई है कला बस हमें अपने दृष्टि को विशालकाय इतना विशालकाय में परिवर्तन करना होगा कि हर पहलू पर गहनता के साथ विचार करने में कठिनाइयों का सामना न करना पड़े और किसी भी एक पक्ष के अतिइंद्रीय होने का खतरा न हो, जहाँ सभी पक्षों को खुलकर पनपने का मौका मिल सके।
यजुर्वेद के पच्चीसवें अध्याय के पहले मंत्र-
“आदित्याँ श्मश्रुभि: पन्थानं भ्रूभ्यां द्यावापृथिवी वत्तौभ्यां विद्युतं कनीना काभ्यां शुक्लाय स्वाहा कृष्णाय स्वाहा.”
में सूर्य के किरणों, विम्बों से तुलना में गजब का स्वातंत्र्य दर्शित हुआ है आँखों के ऊपर और नीचे के पलकों की तुलना आकाश और पृथ्वी के विशाल, अनहद फलकों से देखी गई है। मध्य में पुतली तेज किरणों युक्त आदित्य को दिखाती है, दोनों तरफ सफेद स्थान रिक्तता के किसी भी तह तक के विशालता तक को प्राप्त करने की बात है। कला और उसके अथाह संसार का सार जानने हेतु हमें और भी ग्रंथों के अध्ययन की दरकार है।

(क्रमशः)