● सूर्यकांत उपाध्याय

रिटायरमेंट पर पिता को 80 लाख रुपये मिले। मिठाई खाते हुए बड़े बेटे महेश ने कहा, ‘पापा, आधे पैसे मुझे दे दीजिए। गाड़ी लेनी है और बहू को गहने दिलाने हैं।’
पिता शांत स्वर में बोले, ‘बेटा, तुम्हारी नौकरी अच्छी है। EMI पर सब ले सकते हो। यह पैसा मैंने पूरी उम्र की मेहनत से जोड़ा है, अब मुझे और तुम्हारी माँ को जीवन जीना है।’
महेश झुंझला उठा, ‘आप रिटायर हो चुके हैं, खर्चे भी कम हैं। आखिर हम ही तो वारिस हैं।’
माँ की आंखें भर आईं। जिस बेटे के लिए उन्होंने न जाने कितने त्याग किए, वही अब पैसों की गिनती कर रहा था।
पिता ने धीमे स्वर में कहा, ‘महेश, इस उम्र में हमें सहारे की ज़रूरत है, पैसों की नहीं। क्या रिश्ता इतना सस्ता है?’
उसी समय छोटा बेटा मुकेश आया, ‘पापा, नौकरी लग गई है। पाँच लाख सालाना और कंपनी फ्लैट भी दे रही है।’
पिता का चेहरा खिल उठा। महेश चिढ़कर बोला, ‘अभी कुछ कमाने भी नहीं लगा और खुद को हीरो समझ रहा है। आपने इसे सर चढ़ा रखा है।’
पिता पहली बार सख़्त हुए, ‘क्यों न इसे सर पर चढ़ाऊँ? यह कभी पैसे नहीं मांगता। कहता है, ‘पापा आराम करो, मैं कमा लूंगा। और तुम? हर बार गाड़ी, गहने, विदेश यात्रा की मांग रखते हो।’
बहू ने सफाई दी, ‘पापा जी, महेश तो बस मेरी खुशी के लिए…”, पर पिता ने रोक दिया, ‘खुशी देने के लिए गहने और गाड़ी जरूरी नहीं। माँ-बाप की इज्ज़त भी बड़ी खुशी है।’
घर में सन्नाटा छा गया। अगले दिन पिता ने रिटायरमेंट का पूरा पैसा FD करा दिया और संयुक्त खाता केवल अपनी पत्नी के साथ खोला।
धीरे-धीरे महेश और उसकी पत्नी दूरी बनाने लगे और एक दिन अलग घर ले लिया। माँ-बाप ने कुछ नहीं कहा।
महीनों बाद महेश का फोन आया, ‘पापा, मदद चाहिए… पत्नी अस्पताल में है।’
पिता का जवाब छोटा था, ‘महेश, यह पैसा अब सिर्फ ज़रूरत पर खर्च होगा, लालच पर नहीं।’
फोन कट गया। पिता ने अपनी पत्नी से कहा, ‘चलो मंदिर चलते हैं, भगवान से बच्चों की सद्बुद्धि की प्रार्थना करेंगे।’
सीख: रिश्तों की कीमत पैसों से नहीं होती। माँ-बाप ने पूरी उम्र बच्चों के लिए जिया लेकिन बुढ़ापे में अगर उन्हें केवल धन का जरिया समझा जाए तो यह सबसे बड़ा धोखा है।