● सूर्यकांत उपाध्याय

बुजुर्ग पिताजी बार-बार ज़िद कर रहे थे कि उनकी चारपाई बाहर बरामदे में डाल दी जाए। बेटा परेशान था और बहू बड़बड़ा रही थी, ‘कोई बुजुर्गों को अलग कमरा नहीं देता। हमने तो दूसरी मंजिल पर आपको पूरा कमरा दे दिया है। एसी, टीवी, फ्रिज सब सुविधाएँ हैं। नौकरानी भी रखी है। न जाने सत्तर की उम्र में क्यों सठिया गए हैं!’
पिता बीमार और कमजोर थे। नवनीत ने सोचा, ‘जिद कर रहे हैं तो गैलरी में चारपाई डलवा देता हूँ। पिता की इच्छा पूरी करना तो मेरा स्वभाव बन चुका है।’
अब उनकी चारपाई बरामदे में भी लग गई। जो पिता पहले हर समय बिस्तर पर पड़े रहते थे, अब धीरे-धीरे टहलते-टहलते गेट तक पहुँच जाते। कभी बगीचे में घूमते, नाती-पोतों से खेलते, बातें करते, हँसते और मुस्कुराते।
कभी-कभी बेटे से मनपसंद खाने की चीजें मंगवाते और फिर पूरे परिवार के साथ बाँटकर खाते। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य बेहतर होने लगा।
एक दिन गेट पर पहुँचते ही नवनीत ने सुना, ‘दादा! मेरी बॉल फेंको।’
उसने तीन वर्षीय बेटे तन्विक को डाँटा, ‘बाबा बुजुर्ग हैं, उन्हें ऐसे काम मत कहा करो।’
तन्विक भोलेपन से बोला, “पापा! दादाजी तो रोज हमारी बॉल उठाकर फेंकते हैं।’
नवनीत ने आश्चर्य से पिता की ओर देखा। पिता मुस्कुराए और बोले, ‘बेटा, ऊपर वाले कमरे में सुविधाएँ तो बहुत थीं पर अपनों का साथ नहीं था। तुम लोगों से बातें नहीं हो पाती थीं। अब गैलरी में बैठकर तुम सबसे बात कर लेता हूँ। शाम को तन्विक, गुरु, तेजल और अनवी का साथ भी मिल जाता है। यही मेरी असली दवा है।’
पिता कहते जा रहे थे और नवनीत सोच में डूब गया कि बुजुर्गों को शायद भौतिक सुख-सुविधाओं से ज्यादा अपनों के साथ की जरूरत होती है।
