
शारदीय नवरात्रि का पर्व आते ही वातावरण में उत्साह, भक्ति और ऊर्जा का संचार होने लगता है। इस वर्ष यह शुभारंभ 27 सितंबर को बिल्व निमंत्रण के साथ होगा। यही वह क्षण है जब माता दुर्गा को धरती पर आमंत्रित किया जाता है और पूरे उत्सव का आध्यात्मिक द्वार खुलता है।
इस पूजा में बेलपत्र का विशेष महत्व है क्योंकि इसे देवी का प्रिय माना गया है। इसे अर्पित कर भक्त न केवल पूजन करते हैं बल्कि अपने जीवन में सुख, समृद्धि और सकारात्मक ऊर्जा का आमंत्रण भी देते हैं। इस अवसर पर दीप प्रज्ज्वलन और पूजन से वातावरण शुद्ध और ऊर्जावान हो उठता है।
दुर्गा पूजा केवल एक पर्व नहीं बल्कि संस्कृति, श्रद्धा और आनंद का संगम है। इस भव्य उत्सव की शुरुआत पंचमी तिथि से कलश स्थापना के साथ होती है, जो देवी के स्वागत का प्रथम चरण है। इसी क्षण से वातावरण भक्तिरस से भर जाता है और हर घर-आंगन में मां के आगमन की तैयारी शुरू हो जाती है।
षष्ठी तिथि पर कल्पारंभ, अकाल बोधन, आमंत्रण और अधिवास के अनुष्ठान होते हैं। यही वह समय है जब देवी को औपचारिक रूप से पूजा स्थल पर आमंत्रित किया जाता है। सप्तमी को कोलाबौ की रस्म होती है, जिसमें केले के पौधे को दुल्हन की तरह सजाकर पूजा जाता है। यह प्रतीक है शक्ति और समृद्धि का।

अष्टमी तिथि को पूजा अपने चरम पर होती है। दोपहर 12 बजे भोग आरती और संध्या समय संधि पूजा का आयोजन होता है। इस दिन मां के भक्त उनकी आराधना में पूरी तरह डूब जाते हैं। नवमी को महानवमी, दुर्गा बलिदान और नवमी होम होते हैं, जिनके साथ उत्सव आध्यात्मिक ऊंचाई पर पहुंच जाता है।
दशमी इस पर्व का अंतिम दिन होता है, जिसे भावुकता और उत्साह दोनों के साथ मनाया जाता है। इस दिन बंगाली परंपरा की सबसे अनोखी रस्म सिंदूर खेला अदा की जाती है। विवाहित महिलाएं मां दुर्गा को सिंदूर अर्पित करती हैं और फिर उसी सिंदूर से एक-दूसरे को सजाती हैं।
इसके बाद मां दुर्गा को विदाई दी जाती है और विसर्जन के साथ यह पर्व समाप्त होता है।
