● सूर्यकांत उपाध्याय

एक बार राजपुरोहित देवदत्त ने सोचा, “राजा ब्रह्मदत्त मेरा बहुत सम्मान करते हैं। यह सम्मान मेरे ज्ञान का है या मेरे सदाचार का, इसकी पहचान करनी चाहिए।”
एक दिन राजसभा से लौटते समय देवदत्त कोषागार के पास से गुज़रा। उसने चुपचाप एक सिक्का उठाकर अपने पास रख लिया। कोषाध्यक्ष यह देखकर हैरान हुआ। उसने सोचा, “देवदत्त जैसे महान व्यक्ति ने यदि सिक्का उठाया है तो अवश्य ही इसके पीछे कोई उद्देश्य होगा। आज शायद जल्दी में बताना भूल गए होंगे, बाद में बता देंगे।”
दूसरे दिन भी देवदत्त ने ऐसा ही किया। कोषाध्यक्ष ने धैर्य बनाए रखा।
तीसरे दिन देवदत्त ने तो मुट्ठी भर स्वर्ण मुद्राएँ उठा लीं। अब कोषाध्यक्ष से रहा न गया। उसे लगा कि दाल में कुछ काला है। उसने तुरंत सिपाहियों को बुलाकर देवदत्त को गिरफ्तार करा लिया।
दूसरे दिन जब देवदत्त को राजा के सामने पेश किया गया तो सभी आश्चर्यचकित रह गए, “इतना बड़ा विद्वान और ऐसी चोरी!”
राजा ने कहा,”आपने बहुत बड़ा अपराध किया है और साथ ही हमारी श्रद्धा को भी ठेस पहुँचाई है।”
उन्होंने दंडस्वरूप देवदत्त की चार उंगलियाँ काटने का आदेश दे दिया।
फैसला सुनकर देवदत्त मुस्कराकर बोला, “मैंने धनवान बनने की इच्छा से चोरी नहीं की थी। मैं तो केवल यह जानना चाहता था कि आप मेरा सम्मान मेरे ज्ञान के कारण करते हैं या मेरे सदाचार के कारण। मेरा ज्ञान तो जितना कल था उतना ही आज भी है, किंतु दो दिनों में अंतर यह आया है कि मेरा सदाचार खंडित हुआ है और इसी कारण मुझे दंड मिला है।”
राजा को पूरी बात समझ में आ गई। उन्होंने देवदत्त को सम्मान सहित मुक्त कर दिया।
सीख: आपत्तिकाल में भी हमें सदाचार का त्याग नहीं करना चाहिए।
