● सूर्यकांत उपाध्याय

एक गरीब विधवा का पुत्र एक बार अपने राजा को देखने गया। राजा को देखकर उसने अपनी माँ से पूछा, “माँ! क्या मैं कभी राजा साहब से बात कर पाऊँगा?”
माँ मुस्कुराई और चुप रह गई, लेकिन वह लड़का तो निश्चय कर चुका था। उन्हीं दिनों गाँव में एक संत आए हुए थे तो उस युवक ने उनके चरणों में अपनी इच्छा प्रकट की।
संत ने कहा, “अमुक स्थान पर राजा का महल बन रहा है। तुम वहाँ जाओ और मजदूरी करो, पर ध्यान रखना, वेतन मत लेना, अर्थात् बदले में कुछ माँगना मत। निष्काम रहना।”
वह लड़का वहाँ गया। वह सब से अधिक परिश्रम करता, परंतु वेतन नहीं लेता था।
एक दिन राजा स्वयं निर्माण कार्य का निरीक्षण करने आया। उसने उस लड़के की लगन और निष्ठा देखी तो प्रबंधक से पूछा, “यह लड़का कौन है जो इतनी तन्मयता से काम कर रहा है? इसे आज अधिक मजदूरी देना।”
प्रबंधक ने विनम्रता से कहा, “महाराज! इसका अजीब हाल है। दो महीने से इसी उत्साह से काम कर रहा है पर यह मजदूरी नहीं लेता। कहता है, यह मेरे घर का काम है, घर के काम की क्या मजदूरी लेनी!”
राजा ने उसे बुलाकर पूछा, “बेटा! तुम मजदूरी क्यों नहीं लेते? बताओ, तुम्हारी इच्छा क्या है?”
लड़का राजा के चरणों में गिर पड़ा और बोला, “महाराज! आपके दर्शन हो गए, आपकी कृपा-दृष्टि मिल गई, यही मेरी मजदूरी है। अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए।”
राजा उसकी निष्ठा से प्रसन्न हुआ। उसने उसे अपना मंत्री बना लिया और कुछ समय बाद अपनी इकलौती पुत्री का विवाह भी उसी से कर दिया। राजा का कोई पुत्र नहीं था, अतः कालांतर में उसने अपना राज्य भी उसी को सौंप दिया।
संत महापुरुष कहते हैं-भगवान ही हमारे सच्चे राजा हैं। हम सब भगवान के मजदूर हैं। भगवान का भजन करना ही सच्ची मजदूरी है, संत उनके मंत्री हैं, भक्ति उनकी राजकुमारी है और मोक्ष उनका राज्य है।
यदि हम भगवान के भजन के बदले में कुछ न माँगें तो वे स्वयं दर्शन देकर पहले हमें संत बना देते हैं, फिर अपनी भक्ति प्रदान करते हैं, और अंततः मोक्ष देते हैं।
वह लड़का यदि सकाम कर्म करता तो केवल मजदूरी पाता पर निष्काम कर्म करने से राजा बन बैठा। यही सकाम और निष्काम कर्म के फल का भेद है।
तुलसीदास जी कहते हैं-
“तुलसी विलंब न कीजिए, निश्चित भजिए राम।
जगत मजूरी देत है, क्यों राखे भगवान।।”
