
● धीरज मिश्र
धनतेरस दीपोत्सव की शुभ शुरुआत। इस दिन न केवल धन और समृद्धि का वंदन किया जाता है बल्कि यह लक्ष्मी के स्थायी आगमन का भी प्रतीक माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार धनतेरस या धनत्रयोदशी की पूजा प्रदोष काल में करनी चाहिए, जो सूर्यास्त के बाद आरम्भ होकर लगभग दो घंटे चौबीस मिनट तक रहता है। यही वह समय है जब देवी लक्ष्मी की कृपा सबसे प्रभावी मानी जाती है।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि धनतेरस पूजा के लिए चौघड़िया मुहूर्त नहीं देखा जाता क्योंकि वे यात्रा हेतु शुभ होते हैं, पूजा हेतु नहीं। इस दिन का असली महत्व स्थिर लग्न से जुड़ा है, जब ग्रहस्थिति स्थिर होती है और लक्ष्मीजी को ठहरने का आमंत्रण दिया जाता है। शास्त्रों में वृषभ लग्न को सबसे स्थिर माना गया है, और दीपावली पर्व के दिनों में यह प्रायः प्रदोष काल से संयोग बनाता है।

हमारे देश के विभिन्न नगरों में यह शुभ समय अलग-अलग होता है इसलिए धनतेरस पूजा से पहले अपने नगर के अनुरूप मुहूर्त का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। शुभ मुहूर्त वही होता है जिसमें त्रयोदशी तिथि, प्रदोष काल और स्थिर लग्न तीनों का संगम होता है।
धनतेरस को धनत्रयोदशी भी कहा जाता है। यही वह दिन है जब आयुर्वेद के देवता भगवान धन्वन्तरि समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। इसीलिए इसे धन्वन्तरि जयन्ती के रूप में भी मनाया जाता है।

इस दिन का एक और अत्यंत पवित्र आयाम है, ‘यम दीपदान’। परिवार को अकाल मृत्यु से रक्षा हेतु यमराज को दीप अर्पित किया जाता है। संध्या समय घर के द्वार पर जलाया गया यह दीपक ‘यम दीपम’ कहलाता है, जो त्रयोदशी तिथि की रात्रि में जलाया जाता है। यह दीप केवल तेल का नहीं बल्कि श्रद्धा और सुरक्षा का प्रतीक है।
इस प्रकार धनतेरस न केवल धन और स्वास्थ्य का उत्सव है बल्कि यह स्थिरता, सुरक्षा और समृद्धि की दिव्य साधना का दिवस भी है, जब प्रदोष काल में दीपक की लौ से लक्ष्मी, धन्वन्तरि और यमराज तीनों का आशीर्वाद एक साथ प्राप्त होता है।
