● सूर्यकांत उपाध्याय

एक न्यायप्रिय, प्रजावत्सल और धार्मिक राजा था। वह प्रतिदिन श्रद्धा से अपने ठाकुर जी की पूजा और स्मरण करता था। एक दिन उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर ठाकुर जी प्रकट हुए और बोले, “राजन्! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, वर माँगो।”
राजा ने विनम्र भाव से कहा, “भगवन्, आपकी कृपा से मुझे सब सुख प्राप्त हैं, राज्य में शान्ति है। मेरी केवल एक ही इच्छा है कि जैसे आपने मुझे दर्शन देकर धन्य किया, वैसे ही मेरी सारी प्रजा को भी दर्शन दीजिये।”
भगवान बोले, “यह सम्भव नहीं है।” पर राजा अपनी प्रजा के लिए अडिग रहा। अंततः भगवान बोले, “ठीक है, कल अपनी समस्त प्रजा को उस पहाड़ी के पास ले आना, मैं वहाँ से सभी को दर्शन दूँगा।”
दूसरे दिन राजा ने नगर में घोषणा करवा दी। सब लोग उल्लास से साथ चल पड़े। मार्ग में ताँबे के सिक्कों का पहाड़ आया। कुछ लोग लोभवश उधर दौड़ पड़े। राजा ने समझाया, “इन तुच्छ वस्तुओं के लिए भगवान से मिलने का अवसर मत खोओ।” पर कई लोग लौट गये।
आगे चाँदी के सिक्के मिले तो कुछ और लोग भी छूट गये। फिर सोने का पहाड़ आया, अब तो राजा के अपने स्वजन भी दौड़ पड़े। अंततः केवल राजा और रानी शेष रहे। राजा बोला, “देखो, भगवान के सामने यह सम्पदा क्या है?” रानी ने सहमति जताई, पर जब आगे हीरों का पहाड़ दिखा तो वह भी आकर्षित होकर दौड़ पड़ी और जितना सम्भव हुआ, हीरे बाँधने लगी।
राजा अकेला ही आगे बढ़ा। वहाँ भगवान खड़े थे, मुस्कुराकर बोले, “कहाँ हैं तुम्हारी प्रजा और प्रियजन? मैं तो उनका इन्तजार कर रहा था।” राजा लज्जा से मौन रहा।
भगवान बोले, “राजन्, जो लोग भौतिक वस्तुओं को मुझसे अधिक मानते हैं, वे मेरी कृपा और सान्निध्य से वंचित रह जाते हैं।”
कथा सार: जो जीव मोह, लोभ और सांसारिक आकर्षण छोड़कर सच्चे मन से प्रभु की शरण ग्रहण करता है, वही भगवान की प्राप्ति का अधिकारी बनता है।
