● सूर्यकांत उपाध्याय

गया की पुण्यभूमि पर, आकाशगंगा पर्वत की निस्तब्ध कंदराओं में एक परमहंस महात्मा निवास करते थे।
उनका जीवन साधना, वैराग्य और ईश्वर-स्मरण का साकार रूप था।
एक दिन उनके एक शिष्य ने निर्जला एकादशी का व्रत किया। द्वादशी की प्रभात बेला में वह फल्गु नदी में स्नान कर, विष्णुपद के दर्शन हेतु चल पड़ा। मार्ग में कुछ विलम्ब हो गया। उसके साथ सदैव गोपालजी की मूर्ति रहती थी।
द्वादशी का पारण समय शीघ्र समाप्त होने वाला था। अधीर होकर वह समीप की एक हलवाई की दुकान में पहुँचा और विनम्र स्वर में बोला, “भैया, पारण का समय निकल रहा है। कृपा करके कुछ मिठाई दे दो, गोपालजी को भोग लगाकर जल ग्रहण कर लूँ।”
परंतु दुकानदार ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। साधु ने पुनः कहा, फिर भी उत्तर न मिला। अंततः व्याकुल होकर जब उसने एक बताशा लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तभी दुकानदार और उसके पुत्र ने उसे निर्दयतापूर्वक पीटना प्रारम्भ कर दिया।
निर्जला उपवास से निर्बल साधु भूमि पर गिर पड़ा। राहगीरों ने बड़ी कठिनाई से उसकी रक्षा की। पर साधु मौन रहा। क्रोध नहीं, केवल करुण मुस्कान थी उसके अधरों पर। आकाश की ओर दृष्टि उठाई, हाथ जोड़कर बोला, “भली रे दयालु गुरुदेव, तेरी लीला!”
इतना कहकर वह निःशब्द पहाड़ की ओर लौट गया।
उधर परमहंस जी ध्यानावस्था में थे।
अचानक उन्होंने नेत्र खोले, मुखमंडल तेजस्वी हो उठा। क्षणभर में वे उठ खड़े हुए और तीव्र गति से नीचे उतरने लगे।
रास्ते में उनका वही शिष्य मिला।
परमहंस जी ने कहा, “क्यों रे बच्चा, क्या किया तूने?”
शिष्य बोला, “गुरुदेव, मैंने तो कुछ भी नहीं किया।”
परमहंस जी बोले,“बहुत किया तूने! अत्याचार सहकर भी तू मौन रहा। सब कुछ रामजी पर छोड़ दिया। अब चल, देख, उनका न्याय कितना कठोर होता है।”
दोनों हलवाई की दुकान पर पहुँचे।
दृश्य भयावह था। हलवाई का पुत्र सर्पदंश से मृत पड़ा था, दुकान में आग लगी हुई थी, लोग चारों ओर से चिल्ला रहे थे। हलवाई की समस्त संपत्ति भस्म हो चुकी थी।
परमहंस जी की आँखें गंभीर हो उठीं।
उन्होंने शिष्य से कहा, “बेटा! साधु को यदि बिना अपराध कोई पीड़ा दे तो क्रोध न भी आए, पर उसे अन्याय का प्रतिकार शब्द से अवश्य करना चाहिए। साधु के थोड़े से प्रतिकार से भी अत्याचारी की रक्षा हो जाती है। पर जब साधु सब कुछ भगवान् पर छोड़ देता है, तब परमात्मा स्वयं दंड देते हैं और उनका दंड अत्यंत भयानक होता है।”
