● सूर्यकांत उपाध्याय

चिलचिलाती ज्येष्ठ की दुपहरी हो या सावन की घनघोर बारिश। सरला अपने बेटे आलेख की स्कूल बस के इंतजार में हमेशा समय से पहले बस स्टॉप पर पहुंच जाती थी। पल्लू से पसीना पोंछती या बारिश की बूंदें हटाती हुई वह बार-बार सड़क की ओर देखती रहती। बस से घर पहुंचने में सात-आठ मिनट लगते, इसलिए सरला साथ में स्टील के एक छोटे डब्बे में आलेख की पसंद की मिठाई या नमकीन ले आती। बस से उतरते ही जब आलेख मां के हाथों से डब्बा झपट लेता तो सरला मुस्कुराती रह जाती।
गांव की पाठशाला में केवल पांचवी तक पढ़ी सरला किताबों की बातें तो बेटे को नहीं समझा पाती थी पर जीवन में पढ़ाई-लिखाई के महत्व को भलीभांति जानती थी।
सत्ताईस वर्ष बीत चुके थे। नन्हा आलेख अब नामी वैज्ञानिक बन चुका था। पांच वर्षों से यूरोप में रह रहा था और वहीं उसे अपनी सहकर्मी मीनाक्षी से प्रेम हो गया था जो एक बड़े अफसर की बेटी थी। उसने फोन पर मां को मीनाक्षी के बारे में बताया था।
आज आलेख और मीनाक्षी दोनों भारत लौट रहे थे। सरला एयरपोर्ट के बाहर खड़ी थी। वही प्रतीक्षा, वही धड़कनें। मीनाक्षी के परिवारजन भी सुंदर गुलदस्ते लेकर स्वागत को पहुंचे थे पर बेचारी सरला को इन बुके-शुके की शान कहाँ समझ आती! वह तो अपने आँचल में आज भी छिपाए थी वही पुराना स्टील का डब्बा, जिसमें रखी थी आलेख की मनपसंद सोनपापड़ी।
जैसे ही विमान से यात्री निकले, सब गेट की ओर बढ़े। सरला धीरे-धीरे पीछे हट रही थी। इन अंग्रेजी तौर-तरीकों में वह खुद को पराया महसूस कर रही थी। तभी किसी ने उसके आँचल से डब्बा झपटा। सरला घबरा गई, मगर अगले ही क्षण उसकी आँखें चमक उठीं। सामने आलेख खड़ा था, बचपन वाली उसी मुस्कान के साथ।
मां के चरण छूकर उसने जल्दी से डब्बा खोला और सोनपापड़ी उठाने लगा। मीनाक्षी भी हंसते हुए बोली, “इसमें मां जी ने मेरे लिए भी रखी है।” दोनों बच्चे-से झगड़ते हुए सरला से लिपट गए।
सरला की आंखें भर आईं। उसका वैज्ञानिक बेटा भीतर से आज भी वही मासूम बालक था। तभी मीनाक्षी के पिता आगे बढ़े, गुलदस्ते नीचे रखते हुए बोले,“बहनजी, इस सोनपापड़ी में घुला आपका वात्सल्य और संस्कार, थोड़ा-सा मेरी बेटी को भी दे दीजिए।”
