■ सूर्यकांत उपाध्याय

बहुत समय पहले नन्दीश्वर के निकट यशोदाकुण्ड के पास एक गुफा में एक महात्मा निवास करते थे। वे दिनभर भजन में लीन रहते और सन्ध्या के समय मधुकरी के लिए गाँव जाते। जो कुछ मिल जाता, उसी से उदरपूर्ति कर पुनः गुफा में लौट आते। वे अल्पभाषी और निर्विकार साधु थे। किसी से कोई परिचय नहीं, कोई नाम नहीं, कोई पहचान नहीं।
एक बार गोवर्धन के एक साधु विनयपूर्वक उन्हें नामयज्ञ में भाग लेने चकलेश्वर ले गये। दो दिन बाद वे नन्दग्राम लौट आये। सन्ध्या समय जब वे मधुकरी लेकर गुफा में प्रवेश कर रहे थे, तभी करुण स्वर में किसी ने पुकारा, “ओ बाबा! मैं दो दिन से भूखा हूँ।”
बाबा चौंककर बोले, “आप कौन हैं?”
उत्तर मिला, “मैं वही कुत्ता हूँ, जिसे आप प्रतिदिन मधुकरी का टुकड़ा देते हैं।”
महात्मा विस्मित रह गये। कुत्ते ने कहा, “पूर्व जन्म में मैं इसी नन्दीश्वर में मन्दिर का पुजारी था। एक दिन भोग का लड्डू बिना अर्पण किये खा लिया, उसी अपराध से भूत बन गया। आपकी दी हुई मधुकरी से मेरी मुक्ति सम्भव है, इसलिए प्रतिदिन आता हूँ।”
बाबा ने विनम्र होकर पूछा, “आप तो व्रजधाम के भूत हैं, क्या श्रीजुगलकिशोर के दर्शन करते हैं?”
“दर्शन तो करता हूँ, पर आपकी तरह आनन्द नहीं ले सकता,” कुत्ता बोला।
“तो क्या मुझे उनके दर्शन करा सकते हैं?” बाबा ने निवेदन किया।
“नहीं बाबा, मुझमें वह सामर्थ्य नहीं। पर एक उपाय बताता हूँ। कल गोधूलि बेला में यशोदाकुण्ड के पास बैठिये। जो ग्वाल-बाल सबसे पीछे हो, वही नन्दनन्दन होंगे।” इतना कहकर वह अदृश्य हो गया।
रातभर बाबा का हृदय अशान्त रहा। वे कभी गाते, कभी रोते, कभी ध्यान में डूब जाते। भोर होते ही यशोदाकुण्ड के पास जा बैठे। दिन बीतता गया और जब गोधूलि बेला आयी तो उन्होंने देखा- गाय-बछड़ों के पीछे एक कृष्णवर्ण बालक लकुटिया लिये चला आ रहा है। बाबा दौड़कर उसके चरणों में गिर पड़े। उनके आँसुओं से वह बालक भीग गया।
बालक मुस्कुराया, “बाबा, क्यों रोते हो? मैं तो ग्वालबाल हूँ।”
बाबा ने रुद्ध कण्ठ से कहा, “दयामय! छल मत करो। कृपा कर अपना स्वरूप दिखाओ।”
भगवान् बोले, “चलो मेरे घर, मधुकरी दूँगा, माखन-मिसरी दूँगा।”
पर भक्त का हृदय अडिग रहा। उसका प्रेम देखकर श्रीकृष्ण ने कहा, “ठीक है बाबा, देखो मेरा रूप।”
क्षणभर में उनके सम्मुख त्रिभंगमुरारी का अद्भुत रूप प्रकट हुआ। हाथ में मुरली, अधरों पर मंद मुस्कान, नेत्रों में करुणा की झीलें। बाबा अभिभूत होकर निहारे ही जा रहे थे। पर उनके मन की तृप्ति अब भी अधूरी थी। वे बोले, “प्रभो, मैं जुगल उपासक हूँ। अकेले आपके दर्शन से हृदय की विरह-ज्वाला शांत नहीं होगी। कृपा कर राधा सहित दर्शन दें।”
तभी एक दिव्य प्रकाश फैला। उस प्रकाश में प्रकट हुए श्रीराधाकृष्ण, ललिता-विशाखा और समस्त सखियाँ। वातावरण माधुर्य और रस से भर उठा। बाबा समाधि में चले गये। उस आनन्दानुभूति में उनका शरीर कुछ दिनों बाद त्याग गया।
कहते हैं, उस गुफा से आज भी रात्रि के निःशब्द क्षणों में भजन की मधुर ध्वनि सुनाई देती है-
“जय जय श्रीराधे… जय जय श्रीकृष्ण…”
