
आरती की लौ में नृत्य करता कपूर, अपनी सुगंध से वातावरण को पवित्र कर देता है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि यह कपूर आता कहां से है और इतना शीघ्र जल कैसे जाता है?
कपूर दो प्रकार का होता है। प्राकृतिक और कृत्रिम। प्राकृतिक कपूर कैम्फूर नामक वृक्ष से प्राप्त होता है, जिसका वैज्ञानिक नाम सिनेमौमम कम्फोरा है। यह वृक्ष लगभग 50 से 60 फीट ऊँचा होता है, जिसकी पत्तियाँ चौड़ी और चमकीली होती हैं। जब इसकी छाल सूखने लगती है, तो उसका रंग हल्का भूरा या ग्रे हो जाता है। इसी छाल को अलग कर गर्म किया जाता है, रिफाइन किया जाता है और फिर पीसकर पाउडर बनाया जाता है। बाद में इसी पाउडर को ठोस रूप देकर कपूर की टिकिया बनाई जाती है।
यह वृक्ष मूल रूप से जापान का है, लेकिन चीन में इसका व्यापक प्रसार हुआ। वहीं, चीन की पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली में इसका प्रयोग औषधीय उद्देश्यों के लिए भी किया जाता था। माना जाता है कि नौवीं शताब्दी के आसपास इस पेड़ से कपूर निकालने की प्रक्रिया आरम्भ हुई और धीरे-धीरे यह सुगंधित पदार्थ पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो गया।

भारत में कपूर की यात्रा
1932 में प्रकाशित एक शोधपत्र में कलकत्ता के स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन के वैज्ञानिक आर.एन. चोपड़ा और बी. मुखर्जी ने उल्लेख किया कि सन् 1882-83 के दौरान लखनऊ के हॉर्टिकल्चर गार्डन में कपूर के पेड़ की सफल खेती की गई थी। प्रारंभ में यह प्रयोग सीमित रहा किंतु बाद में भारत के कई भागों में कैम्फूर वृक्ष की खेती शुरू हो गई।
कपूर के जलने का रहस्य इसके रासायनिक गुणों में छिपा है। इसमें कार्बन और हाइड्रोजन की मात्रा अधिक होती है, जिससे इसका ज्वलन तापमान बहुत कम होता है। यही कारण है कि यह हल्की सी गर्मी पाते ही प्रज्वलित हो उठता है। इसकी वाष्प वायु में तेजी से फैलकर ऑक्सीजन के संपर्क में आते ही अग्नि में परिवर्तित हो जाती है।
इस प्रकार, कपूर केवल पूजा का एक भाग नहीं बल्कि प्रकृति की उस अद्भुत देन का प्रतीक है जो शुद्धता, ऊर्जा और दिव्यता का संदेश देती है।
