■ सूर्यकांत उपाध्याय

रानी रासमणि ने कोलकाता में एक भव्य काली मंदिर का निर्माण कराया। किंतु छोटी जाति की होने के कारण कोई ब्राह्मण पुजारी वहाँ पूजा करने को तैयार नहीं हुआ। रासमणि स्वयं भी मंदिर के गर्भगृह में कभी नहीं गईं। वह चिंतित थीं, क्या मंदिर बिना पूजा के रहेगा?
काफी खोजबीन के बाद किसी ने बताया कि गदाधर नाम का एक ब्राह्मण युवक है, जो थोड़ा अलग स्वभाव का है; संभव है वह पूजा के लिए तैयार हो जाए। गदाधर से पूछा गया तो उसने सहज भाव से कहा,“यदि भगवान बिना पूजा के हैं तो यह उचित नहीं; मैं पूजा करूंगा।”
परिवार और मित्रों ने उसे रोका तब गदाधर ने उत्तर दिया, “यह नौकरी नहीं, समर्पण है। जब भगवान स्वयं बुला रहे हैं तो मैं कैसे मना करूं?”
रासमणि को खबर मिली कि गदाधर पूजा तो करेगा पर वह शास्त्रों का ज्ञाता नहीं है। उसकी पूजा अनोखी है, कभी दिनभर पूजा करता है, कभी बिल्कुल नहीं। कभी पहले खुद भोग लगाता है, फिर भगवान को। रासमणि ने कहा, “आने दो, कम से कम कोई तो आराधना करेगा।”
गदाधर के आने के बाद सबने देखा, कभी दीया नहीं जलता, कभी वह पूरे दिन गाता-नाचता रहता। रासमणि ने पूछा, “यह कैसी पूजा है? किस शास्त्र में लिखी है?”
गदाधर ने शांत भाव से उत्तर दिया, “पूजा शास्त्र की नहीं, प्रेम की होती है। जब मन न हो तो पूजा दिखावा बन जाती है। वह तो जानता है कि मेरे भीतर भाव है या नहीं। बिना भाव के पूजा करना उसे धोखा देना है। जब भीतर प्रेम उमड़ता है, तब एक ही दिन में कई दिन की पूजा पूरी कर लेता हूँ। यह भाव का विषय है, नियम का नहीं।”
रासमणि ने पूछा, “तुम्हारे यहाँ कोई विधि-विधान नहीं दिखता। कभी आरती पहले, कभी बाद में?”
गदाधर ने कहा, “वह जैसा करवाता है, वैसा करता हूँ। हम अपना विधान उस पर थोप नहीं सकते। पूजा क्रिया नहीं, प्रेम है। जैसा भीतर आविर्भाव होता है, वैसा ही हो जाता है।”
रासमणि ने फिर पूछा, “तुम पहले खुद भोग क्यों लगाते हो?”
गदाधर मुस्कराए,“मेरी माँ भी पहले खुद चखती थी, फिर मुझे देती थी कि कहीं स्वाद ठीक न हो। मैं भी वही करता हूँ। जब मुझे ही अच्छा न लगे तो भगवान को कैसे दूँ? यही सच्चा प्रेम है।”
यह सुनकर रासमणि मौन रह गईं। उनके पास कोई प्रश्न नहीं बचा था।
वह गदाधर आगे चलकर श्रीरामकृष्ण परमहंस कहलाए-भक्ति और भाव के प्रतीक।
शिक्षा: तन-मन की शांति के लिए परमात्मा से सच्चा प्रेम ही सर्वोत्तम साधना है।
