■ जयंती विशेष: सेवा, श्रद्धा और सद्भाव का अमर दीप
■ बापा ने मृत पक्षियों को जिंदा कर दिया था

● धीरज मिश्र
गुजरात की पवित्र भूमि वीरपुर में सन् 1799 में जब एक साधारण परिवार में बालक जलाराम का जन्म हुआ, तब किसी ने नहीं सोचा था कि यह बालक एक दिन पूरे भारतवर्ष में करुणा और सेवा का प्रतीक बनेगा। पिता प्रधान ठक्कर और माँ राजबाई के संस्कारों ने उन्हें धार्मिकता, दया और सन्तसेवा का अमूल्य बीज दिया। माँ की निःस्वार्थ सेवा से प्रसन्न होकर संत रघुवीरदास जी ने आशीर्वाद दिया था, “यह बालक ईश्वरभक्ति और सेवा की मिसाल बनेगा।” वही वचन आगे चलकर साकार हुआ।
केवल सोलह वर्ष की आयु में जलाराम का विवाह वीरबाई से हुआ पर उनका मन सांसारिक बन्धनों से ऊपर उठकर लोकसेवा में रम गया। जब उन्होंने तीर्थयात्रा का संकल्प लिया तो पत्नी वीरबाई ने भी उनके मार्ग में साथ देने का निर्णय लिया। अठारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने फतेहपुर के संत भोजलराम को गुरु स्वीकार किया, और गुरु ने उन्हें ‘रामनाम’ का मंत्र देकर जीवन का उद्देश्य बताया, सेवा ही सच्ची साधना है।
इसी भावना से जलाराम बापा ने “सदाव्रत” नामक अन्नक्षेत्र की स्थापना की, जहाँ चौबीसों घंटे साधु-संतों और भूखे यात्रियों के लिए भोजन की व्यवस्था रहती थी। कोई भी व्यक्ति वहाँ बिना भोजन किए नहीं लौटता था। बापा और वीरबाई माँ स्वयं हाथों से रोटियाँ बेलते और थाल सजाते थे।
उनकी करुणा और भक्ति की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। कहा जाता है कि बापा की प्रार्थना से असाध्य रोगी ठीक हो जाते, निर्धनों को रोजगार मिल जाता और निराशों में आशा का संचार होता। हिंदू-मुस्लिम भेद से परे, सभी बापा के सदाव्रत में भोजन पाते और आशीर्वाद लेते थे।
एक प्रसिद्ध प्रसंग में तीन अरबी यात्री, जिनके थैलों में मृत पक्षी थे, बापा के आग्रह पर भोजन कर उठे। जब उन्होंने पश्चातापपूर्वक थैले खोले तो वे पक्षी जीवित होकर उड़ गए। यह घटना उनकी दैवी शक्ति और करुणा का प्रतीक बन गई।
सन् 1934 के भयंकर अकाल में बापा और वीरबाई माँ ने चौबीसों घंटे भूखों को भोजन कराकर मानवता की नई मिसाल दी। कुछ वर्ष बाद, 1937 में, प्रार्थना करते हुए बापा ने देह त्याग दी पर उनका सदाव्रत आज भी चल रहा है।
श्रद्धालु आज भी गुरुवार को उपवास रखते हैं, अन्नदान करते हैं और जलाराम बापा से अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति की प्रार्थना करते हैं। उनके जीवन का संदेश अमर है, “सेवा ही सच्ची साधना है, और करुणा ही ईश्वर का रूप।”
