■ सूर्यकांत उपाध्याय

सेठ धनीराम एक सम्मानित, विचारशील और संपन्न व्यक्ति थे। उनके दो पुत्र थे – मोहन और सोहन। समय के साथ जब धनीराम वृद्ध हुए तो उन्होंने अपनी संपत्ति का बंटवारा करने का निश्चय किया।
जैसे ही बँटवारे की बात शुरू हुई, दोनों पुत्रों में विवाद छिड़ गया। सबसे बड़ा झगड़ा शहर के उस आलीशान चार बेडरूम वाले घर को लेकर हुआ, जिसे दोनों पाना चाहते थे। स्थिति इतनी बिगड़ गई कि एक दिन दोनों भाई आपस में मरने-मारने को तैयार हो गए।
यह दृश्य देखकर धनीराम हँस पड़े। दोनों हैरान हुए और बोले, “पिताजी, ऐसी हालत में आप हँस क्यों रहे हैं?”
पिता ने शांत स्वर में कहा, “तुम दोनों जमीन के एक टुकड़े के लिए झगड़ रहे हो। आओ, मैं तुम्हें एक अनमोल खजाना दिखाता हूँ। लेकिन शर्त है अगर रास्ते में तुम झगड़े तो मैं लौट आऊँगा।”
खजाने की बात सुनकर दोनों तैयार हो गए और आपसी प्रेम से यात्रा शुरू की। रास्ते में बस में केवल दो सीटें थीं। दोनों ने बारी-बारी से बैठकर दस घंटे की यात्रा पूरी की।
गांव पहुँचकर धनीराम उन्हें एक पुरानी हवेली के सामने ले गए। टूटी दीवारें, जाले और कबूतरों के घोंसले। उसे देखते ही उनकी आँखें भर आईं।
पुत्रों ने पूछा, “पिताजी, आप क्यों रो रहे हैं?”
धनीराम बोले, “यही वह हवेली है, जिसके लिए मैंने अपने बड़े भाई से झगड़ा किया था। हवेली तो मिल गई पर भाई सदा के लिए खो गया। आज देखो, यहाँ सिर्फ खामोशी है।”
फिर मुस्कराकर बोले, “बस में जिस सीट पर हम बैठे थे, क्या वो हमारी थी?”
दोनों ने कहा, “नहीं, वह तो थोड़ी देर के लिए थी।”
धनीराम बोले, “यही सच्चाई है बेटा। ये घर, जमीन, दौलत, सब बस थोड़ी देर के मेहमान हैं। इससे पहले कोई और था, कल कोई और होगा। रिश्ते ही असली खजाना हैं, इन्हें स्वार्थ की आग में मत जलाना।”
दोनों पुत्र पिता की गोद में गिरकर रो पड़े। उन्होंने जीवन का सच्चा अर्थ समझ लिया।
शिक्षा: धन और संपत्ति क्षणिक हैं पर रिश्ते अनमोल हैं। जीवन की यात्रा में तालमेल, प्रेम और त्याग ही सच्चा खजाना है।
