■ सूर्यकांत उपाध्याय

लखनऊ के एक पुराने मोहल्ले में हर सुबह साइकिल की घंटी, ऑटो की आवाज और चाय की खुशबू लोगों को जगाया करती थी। उसी मोहल्ले के एक कोने में रहता था श्यामलाल साधारण-सा आदमी, छोटा घर, टीन की छत और दरवाजे के बाहर खड़ा उसका पुराना ऑटो। उसकी पत्नी मीना घर संभालती, बेटी आर्या पढ़ाई में मन लगाती और बूढ़ी मां कौशल्या पूजा करतीं। सब कुछ शांत था पर एक बरसाती रात ने सब बदल दिया।
तेज बारिश में सवारी की तलाश में निकले श्यामलाल ने देखा कि एक महिला गली में गिर पड़ी है। बिना देर किए उसने उसे ऑटो में बैठाया और अस्पताल पहुंचाया। उस रात उसने इंसानियत दिखाई, पैसे नहीं देखे, नाम नहीं पूछा। अगले दिन मोहल्ले में एक चमचमाती काली एसयूवी आई। तीन लोग उतरे और सीधे श्यामलाल के घर पहुंचे। उन्होंने कहा, “हमारे साहब आपसे मिलना चाहते हैं।” घबराया श्यामलाल उनके साथ चल पड़ा।
कुछ ही देर में वे एक आलीशान बंगले पर पहुंचे। भीतर वही महिला बैठी थी, जिसकी उसने जान बचाई थी, डॉक्टर अजय मेहता की पत्नी, शालिनी। भावुक होकर उसने कहा, “भैया, मैं जिंदा हूं तो आपकी वजह से।” डॉक्टर अजय ने श्यामलाल का हाथ थामते हुए कहा, “हम आपकी ईमानदारी लौटाने आए हैं।” उन्होंने आर्या की पढ़ाई, मीना की देखभाल और मां कौशल्या के इलाज का सारा ज़िम्मा उठा लिया। साथ ही श्यामलाल को अपनी गाड़ी चलाने की नौकरी और रहने को क्वार्टर दिया।
धीरे-धीरे श्यामलाल का परिवार संभलने लगा। आर्या ने नए स्कूल में कदम रखा, पर वहां उसे ताने मिले, “यह तो झुग्गी से आई है।” वह टूटने लगी पर पिता ने कहा, “बिटिया, मेहनत से जवाब देना।” उस दिन के बाद आर्या ने कमर कस ली। वक्त गुजरा, वह हर क्षेत्र में आगे बढ़ी और स्कूल के मंच से बोली, “मुझे गर्व है कि मैं उस इंसान की बेटी हूं जिसने बिना सोचे किसी की जान बचाई।”
तालियों की गड़गड़ाहट में श्यामलाल की आंखें भर आईं। आर्या ने मेडिकल एंट्रेंस में टॉप किया। सम्मान समारोह में श्यामलाल ने कहा, “मैं कोई बड़ा आदमी नहीं, बस एक इंसान हूं जिसने एक रात किसी को गिरते देखा और थाम लिया।”
कभी-कभी जिंदगी में एक छोटा-सा निर्णय किसी की तकदीर बदल देता है। श्यामलाल की ईमानदारी और संवेदना ने उसके पूरे परिवार की दुनिया रोशन कर दी।
