■ सूर्यकांत उपाध्याय

बहुत समय पहले की बात है। एक छोटे से गाँव में विश्राम नाम का एक प्रसिद्ध शिल्पकार रहता था। उसकी कारीगरी इतनी अद्भुत थी कि दूर-दूर से लोग उसके बनाए भगवान की मूर्तियाँ मँगाते थे। हर कोई मानता था कि उसके हाथों में जादू है। पत्थर भी उसकी छेनी और हथौड़ी के नीचे आकर जीवंत हो उठता था।
एक दिन विश्राम नई मूर्ति बनाने के लिए घने जंगल की ओर निकल पड़ा। पेड़ों के झुरमुटों के बीच, पक्षियों के मधुर गीतों के बीच वह एक-एक पत्थर को ठोक-ठोक कर देखता रहा। घंटों की तलाश के बाद उसे एक चिकना, मजबूत और सुंदर पत्थर मिल गया। वह पत्थर किसी भी मूर्ति के लिए उपयुक्त था। लेकिन रास्ते में लौटते समय उसकी नजर एक और पत्थर पर पड़ी वह थोड़ा खुरदुरा था, लेकिन ठोस लग रहा था। शिल्पकार ने सोचा, “कभी-कभी अतिरिक्त पत्थर काम आ जाता है।” और दोनों पत्थरों को गधे पर लादकर अपने घर ले आया।
घर पहुँचकर उसने पहले वाले सुंदर पत्थर को सामने रखा। छेनी और हथौड़ी उठाई और पूरे ध्यान से उस पर प्रहार करने लगा।
ठक… ठक… ठक…!
हर चोट के साथ पत्थर की सतह से छोटी-छोटी कतरनें उड़ने लगीं।
कुछ ही देर में पत्थर दर्द से कराह उठा, “आह! मुझे मत मारो! मैं टूट जाऊँगा। यह सब बहुत तकलीफ देता है… कृपया किसी और पत्थर को ले लो।”
शिल्पकार कुछ पल के लिए रुका। उसके चेहरे पर करुणा झलकने लगी।
“ठीक है,” उसने कहा, “अगर तुझे दर्द सहना मुश्किल है, तो मैं किसी और पत्थर को आजमाता हूँ।”
उसने दूसरा पत्थर उठाया, जो रास्ते से लाया गया था और बिना बोले उस पर काम शुरू किया।
ठक… ठक… ठक…!
इस बार पत्थर ने एक भी शब्द नहीं कहा। वह चुपचाप, स्थिर, हर चोट को सहता रहा।
दिन-रात बीतते गए और आखिरकार महीनों की मेहनत के बाद वह पत्थर एक सुंदर भगवान की मूर्ति में बदल गया।
पास के गाँव से लोग मूर्ति लेने आए। जब उन्होंने उस अद्भुत मूर्ति को देखा तो उनकी आँखें चमक उठीं।
“वाह! कितनी दिव्य मूर्ति है!”
वे मूर्ति को लेकर जाने लगे, तभी एक व्यक्ति बोला,“अरे, मंदिर में नारियल फोड़ने के लिए एक मजबूत पत्थर भी चाहिए, वहीं रख दो।”
तो उन्होंने पहला पत्थर भी उठा लिया, वही जो चोट से डर गया था।
मंदिर बनकर तैयार हुआ। मूर्ति को गर्भगृह में बड़े सम्मान से स्थापित किया गया। घंटियाँ बजने लगीं, शंखनाद हुआ, फूलों की वर्षा होने लगी।
लोग मूर्ति पर दूध चढ़ाते, गंगाजल से स्नान करवाते, माला पहनाते और हाथ जोड़कर प्रणाम करते।
वहीं सामने, सीढ़ियों के पास रखा गया था पहला पत्थर।
लोग आते और उस पर नारियल फोड़ते।
ठक! छपाक!
हर बार एक तेज चोट और उसके ऊपर बिखरता नारियल।
पत्थर दर्द से कराह उठता, “हे भगवान! मैं तो रोज़ टूट रहा हूँ… और वह मूर्ति वाला पत्थर फूलों में नहा रहा है।”
एक दिन उसने मूर्ति से कहा,“भाई, हमारी किस्मत तो एक ही जगह से शुरू हुई थी। मगर देखो, तुझे पूजा मिल रही है और मुझे प्रहार। आखिर फर्क कहाँ पड़ा?”
मूर्ति मुस्कुराई और बोली,“फर्क उस दिन पड़ा जब शिल्पकार ने पहली बार हमें छेनी से तराशना शुरू किया था।
मैंने दर्द सहा, क्योंकि मुझे विश्वास था कि उस दर्द के पीछे कोई उद्देश्य है।
तू डर गया और वही डर तुझे यहाँ ले आया।”
मूर्ति आगे बोली, “उस दिन अगर तूने थोड़े समय का दर्द सह लिया होता
तो आज लोग तुझे दूध से नहला रहे होते,
तेरे चरणों में फूल चढ़ा रहे होते।
पर तूने आसान रास्ता चुना और आज उसका परिणाम भुगत रहा है।”
शिक्षा: “जो कठिनाइयों से भागता है, वो पत्थर बन जाता है। जो उन्हें सह लेता है, वो मूर्ति बन जाता है..!”

वाह, अतिसुंदर,प्रेरक प्रसंग