■ सूर्यकांत उपाध्याय

एक बार महाराणा प्रताप अरावली की पथरीली गोद में, पुंगा की पहाड़ी बस्ती के समीप, एक अँधेरी-सी घाटी में छिपकर अपने परिवार सहित निवास कर रहे थे। चारों ओर अकबर की घेराबंदी, जंगलों में फैला भय, रात भर जागते पहरे… और इन सबके बीच भील जनजाति का हर इंसान अपने प्राणों की परवाह किए बिना राणा प्रताप के लिए रोज़ भोजन पहुँचाता था।
आज दुद्धा की बारी थी।
बारह बरस का दुद्धा दुबला-सा, मासूम-सा, पर दिल ऐसा… जैसे लोहे से ढला हो। घर में अन्न का एक दाना तक नहीं था लेकिन देशभक्ति भूख से बड़ी होती है, और माँ का हृदय… त्याग से भी बड़ा।
दुद्धा की माँ पड़ोसी से थोड़ा-सा आटा माँग लाई। धधकते चूल्हे की आग में आँसू पोंछते हुए उसने रोटियाँ सेंकीं।
हर रोटी में उस माँ के मन का आशीर्वाद था राणा के लिए, धर्म के लिए, मातृभूमि के लिए।
रोटियों की पोटली दुद्धा को थमाते हुए माँ ने बस इतना कहा, “जा बेटा… यह पोटली राणा तक ज़रूर पहुँचा देना।
वह संकट में हैं… भूखे नहीं रहने चाहिए।”
दुद्धा की आँखों में चमक आ गई।
वह पोटली को अपने सीने से लगा लेता है, जैसे वह रोटियाँ नहीं, राजपूताना की आन-बान हों।
और फिर… पहाड़ों की पगडंडी पर वह हवा की तरह दौड़ पड़ा।
घेराबंदी कर बैठे मुगल सैनिकों ने उसे देखा। एक ने तिरस्कार भरी आवाज़ में टोका, “ओए! कहाँ भागा जा रहा है?”
दुद्धा ने कोई उत्तर नहीं दिया… बस तेज़ दौड़ता रहा। क्योंकि उसे पता था एक क्षण भी रुका तो राणा भूखे रहेंगे। लेकिन सैनिकों ने पीछा किया… भारी जिरह-बख्तर पहने, तलवारें लहराते हुए।
दुद्धा जंगल की झाड़ियों से, पथरीली ढलानों से भागता चला गया। हर कदम ऐसा था, जैसे वह अपनी उम्र से नहीं अपनी मातृभूमि की लाज से शक्ति ले रहा हो।
एक सैनिक तेज़ झपट्टा मारता है… दुद्धा चट्टान से टकराकर गिर पड़ता है।
सैनिक क्रोध में तलवार खींच लेता है और अगले ही क्षण तेज़ वार!
एक खून से भीगी चीख अरावली की घाटी में खो जाती है। दुद्धा की नन्हीं कलाई कटकर नीचे गिर चुकी थी।
रक्त फव्वारे की तरह फूट रहा था।
लेकिन… ओ देवताओं! देखो उस बालक का हृदय, वह दर्द से तड़पते हुए भी गिरी हुई पोटली को दूसरे हाथ से उठाता है।
उसकी आँखों में एक ही ज़िद थी, “रोटियाँ राणा तक ज़रूर जाएँगी… चाहे मेरा शरीर साथ दे या न दे।”
और फिर… वह लड़खड़ाते कदमों से नहीं अपनी आख़िरी साँसों की आग से दौड़ने लगता है। रक्त उसके पाँवों को रंगता चला जाता था, लेकिन वह रत्तीभर नहीं रुका।
आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा था।
कानों में सिर्फ़ एक ही आवाज़ गूँज रही थी, “रोटियाँ… राणा तक… रोटी…”
आख़िरकार… वह जंगल की गुफा के पास पहुँच गया और वहीं गिर पड़ा।
पर जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसे पुकारा हो, वह एक बार फिर उठता है… अपने प्राणों का अंतिम बल जुटाता है… और पुकारता है-“रा…णा…जी!”
यह आवाज़ सुनकर महाराणा प्रताप स्वयं बाहर आए।
उनके सामने एक बारह वर्षीय बालक एक हाथ में रोटी की पोटली, दूसरा हाथ कटकर लहूलुहान जैसे कोई छोटा-सा शिवाजी महाराज, कोई नन्हा दुर्गादास… योद्धा था।
राणा प्रताप का हृदय फट पड़ा।
उन्होंने दुद्धा का सिर अपनी गोद में रख लिया। उनके कठोर, युद्ध-पक चुके हाथ काँप रहे थे।
उन्होंने पानी के छींटे मारे… दुद्धा की धुँधली आँखें खुलीं।
होंठ काँपते हुए बोले, “र… राणाजी… ये… रोटियाँ… माँ ने… भेजी हैं…”
बस इतना कहते ही उसकी साँसें टूटने लगीं।
राणा प्रताप की आँखों में आँसू छलक आए, उसी राणा की… जिसकी दृढ़ता पर्वतों को चीर देती थी।
वह फुसफुसाए, “बेटा… तुझे इतना बड़ा संकट उठाने की क्या ज़रूरत थी?”
दुद्धा मुस्कुराया… वह मुस्कान जिसने इतिहास को अमर कर दिया।
कमज़ोर आवाज़ में बोला, “अन्नदाता… आप तो पूरे परिवार के साथ संकट में हैं…माँ कहती है… आप चाहते तो अकबर से समझौता कर सकते थे…
पर आपने धर्म की रक्षा के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया…
उसके आगे… मेरा त्याग… कुछ भी नहीं…”
और इतना कहते ही…
बारह साल का वह बालक राणा की गोद में वीरगति को प्राप्त हो गया।
उस पल… अरावली मौन हो गई।
पेड़ों ने अपनी साँसें रोक लीं।
राणा के आँसू दुद्धा के माथे पर गिरे और मानो उसे अमरत्व का तिलक दे दिया।
राणा प्रताप ने काँपते स्वर में कहा, “धन्य है तेरी मातृभूमि…धन्य है तेरी माँ…धन्य है तेरा बलिदान…तू अमर रहेगा, मेरे बालक… तू सदैव अमर रहेगा!”
आज भी अरावली की चट्टानें, दुद्धा के रक्त से रँगी हुई मिट्टी और उस गुफा के पत्थर… यह कहानी हवा में फुसफुसाते हैं, “जहाँ ऐसे बच्चे जन्म लेते हैं…
वह धरती कभी पराजित नहीं हो सकती।”
