● सूर्यकांत उपाध्याय

एक गांव में संत महात्मा आए। लोग भेंट की तैयारी करने लगे। वहीं एक गरीब चर्मकार ने तालाब से खिले कमल को तोड़कर उसे महात्मा को अर्पित करने का निश्चय किया।
कमल अत्यंत सुंदर था, जिस पर ओस की बूंदें चमक रही थीं। पहले एक सेठ, फिर नगर-सेठ, मंत्री और अंत में राजा तक ने इस फूल के बदले बड़ी-बड़ी राशियां देने की पेशकश की, ताकि वे महात्मा को यह फूल भेंट कर सकें।
लेकिन गरीब चर्मकार ने विनम्रता से मना कर दिया और कहा, ‘यह फूल मेरे जीवन की एकमात्र भेंट है। इसे बेचूंगा नहीं अपितु महात्मा के चरणों में अर्पित करूंगा। मुझे राजाओं की संपत्ति से नहीं, संतों के आशीर्वाद से कल्याण होता दिखा है।
महात्मा ने जब यह सुना तो गदगद हो उठे और अपने शिष्यों से कहा, ‘इस गरीब का समर्पण और भावनाएं इतनी पवित्र हैं कि आज इसने वह कमा लिया, जो राजाओं ने जीवन भर में नहीं कमाया।’
ईश्वर और संतों को भेंट में बाहरी वस्तु नहीं बल्कि सच्चा मन और भाव चाहिए। यही सच्चा समर्पण है।