● सूर्यकांत उपाध्याय

रेलवे स्टेशन की भीड़भाड़ और शोरगुल के बीच एक ट्रेन आकर रुकी। तभी एक दुबला-पतला, मगर फुर्तीला लड़का पानी बेचता हुआ प्लेटफॉर्म पर दौड़ रहा था, “पानी लो पानी!”
ट्रेन की खिड़की से एक सेठ ने आवाज लगाई, “ऐ लड़के, इधर आ।”
लड़का तुरंत दौड़कर पहुंचा और घड़े से गिलास भरकर सेठ की ओर बढ़ा दिया।
सेठ ने पूछा, “कितने पैसे में?”
लड़का बोला, “पच्चीस पैसे।”
सेठ ने मुस्कराकर कहा, “पंद्रह में देगा क्या?”
लड़का हल्की-सी मुस्कान दबाए, चुपचाप पानी गिलास से वापस घड़े में उड़ेलकर आगे बढ़ गया।
ट्रेन के उसी डिब्बे में एक महात्मा बैठे थे, जो यह सब देख रहे थे।
उन्हें लड़के का मौन, उसकी मुस्कान और उसका आगे बढ़ जाना कुछ रहस्यमय लगा।
जैसे ही ट्रेन कुछ देर के लिए रुकी, महात्मा जी नीचे उतरे और उस लड़के के पीछे-पीछे चल दिए।
उन्होंने आवाज दी, “ऐ लड़के, रुको ज़रा। यह तो बताओ, तुम मुस्कराए क्यों?”
लड़का विनम्रता से बोला,
“महाराज, मुझे हंसी इस बात पर आई कि सेठजी को असली प्यास लगी ही नहीं थी… वो तो बस भाव कर रहे थे।”
महात्मा ने ध्यान से देखा और फिर पूछा,
“पर तुम्हें यह कैसे पता चला कि उन्हें प्यास नहीं लगी थी?”
लड़के ने सहजता से उत्तर दिया,
“महाराज, जिसे सच में प्यास लगी होती है, वह पहले पानी पीता है, कीमत बाद में पूछता है। जो पहले भाव-ताव करे, समझ लेना चाहिए कि उसे जरूरत नहीं, बस आदत है।”
महात्मा कुछ क्षण मौन रहे… फिर जैसे कोई जीवन का सूत्र हाथ लग गया हो, उनकी आँखों में चमक आ गई।
लड़का आगे बोला,
“महाराज, ठीक यही बात जीवन और साधना पर भी लागू होती है।
जिसे वास्तव में ईश्वर की तलाश होती है, वह बहस नहीं करता, संदेह नहीं करता। वह तो श्रद्धा से रास्ते पर चल पड़ता है।
लेकिन जिसे तलाश नहीं होती, वह तर्क करता है, शंका करता है और रास्ते से भटक जाता है।”
महात्मा मुस्कराए, और उनकी आँखें उस छोटे से लड़के में एक अद्भुत गहराई को पहचान चुकी थीं।