● सूर्यकांत उपाध्याय

साल 2010 की बात है। रोज़ाना 55 किलोमीटर का सफर तय कर मैं हरियाणा से उत्तर प्रदेश नौकरी पर जाती थी पैसेंजर ट्रेन से। सर्दियों की धुंध में ट्रेन अक्सर लेट हो जाती तो मैं मजबूरी में एक्सप्रेस ट्रेन पकड़ लेती। पापा रेलवे में थे, इसलिए उनका फर्स्ट क्लास पास मेरे पर्स में रहता था इसलिए टीटी कुछ नहीं कहता था।
एक दिन स्लीपर कोच में चढ़ी। सीट तो नहीं थी, पर एक बुजुर्ग अंकल (लगभग 70-75 के) ने मुस्कुरा कर कहा, ‘बेटा, इधर बैठ जाओ।’ उनके बगल में एक लड़की पहले से थी, मैं दूसरी ओर बैठ गई।
थोड़ी देर बाद वे अंकल बार-बार कभी मेरी ओर, कभी उस लड़की की ओर झुकने लगे। शुरू में सोचा, शायद उम्र का असर हो। पर जब ये बार-बार हुआ, तो समझ आ गया, ये जानबूझकर किया जा रहा है।
उसी वक्त सामने बैठा एक नौजवान चुपचाप खड़ा हो गया और इशारे से मुझे अपनी सीट पर बैठने को कहा। मैंने बिना कुछ कहे उसकी सीट ले ली। उस लड़की ने भी दूरी बना ली और आंखों से मुस्कुरा दी। अब अंकल एकदम जागे-जागे लग रहे थे, खिड़की से बाहर ताकते।
मेरा स्टेशन आया। उतरते हुए मन उस नौजवान को धन्यवाद कहना चाहता था, लेकिन वह कहीं दिखाई नहीं दिया।
आज भी जब उस दिन की याद आती है, तो उस अजनबी के लिए दिल से दुआ निकलती है।
वाकई, उम्र से नहीं, संस्कारों से इंसान की पहचान होती है।
कभी उम्र सहारा बनती है, तो कभी सिरदर्द। उम्र… सच में, बस एक संख्या है।