● सूर्यकांत उपाध्याय

पहाड़ की चोटी पर बने एक किले के किनारे एक विशाल देवदार वृक्ष था, जिस पर एक उल्लू रहता था। भोजन के लिए वह नीचे घाटी तक जाता लेकिन उसका मन झील में रहने वाले सुंदर, सौम्य हंसों को देखकर मोहित हो जाता। एक दिन उसने साहस कर एक हंस से मित्रता कर ली। वह हंस वास्तव में हंसों का राजा हंसराज था, जिसने उल्लू को अपने महल में आमंत्रित किया। शाही स्वागत, स्वादिष्ट व्यंजन और मोतियों से सजी मेहमाननवाज़ी ने उल्लू को चकित कर दिया।
परंतु भीतर ही भीतर उल्लू को भय सताने लगा कि कहीं हंसराज उसे साधारण समझकर दूर न हो जाए। तभी उसने झूठ बोल दिया कि वह भी उल्लुओं का राजा ‘उल्लूक राज’ है। झूठ को निभाने के लिए उसने योजना बनाई और एक दिन हंसराज को अपने किले ले आया। वह जानता था कि किले में सेना की रोज की परेड होती है और उसी समय वह हंसराज को वहां लाया। परेड देखकर हंस ने समझा कि यह सब उसी के स्वागत में है और वह उल्लू की शान से बहुत प्रभावित हुआ।
उल्लू का अभिनय चलता रहा परंतु अगले दिन सेना को वहां से हटने का आदेश मिला। जब सैनिक जाने लगे, तो उल्लू ने ‘हूं-हूं’ की आवाज़ें कर उन्हें रोकने की कोशिश की। सैनिकों ने इसे अपशकुन समझा और रुक गए। लेकिन बार-बार ऐसा होने पर एक दिन क्रोध में आकर उन्होंने तीर चला दिया। दुर्भाग्यवश तीर उल्लू के पास बैठे हंसराज को ही लग गया। वह वहीं गिरकर मर गया।
उल्लू उसके शव के पास फूट-फूटकर रोने लगा, ‘हाय, मेरी झूठी शान ने मेरा सच्चा मित्र छीन लिया।’ उसी क्षण एक भूखा सियार आया और विलाप करते उल्लू पर झपट पड़ा और उसे अपना ग्रास बना लिया।
सीख: झूठी शान की कीमत बहुत भारी होती है। सम्मान पाने के लिए छल नहीं, सत्य और सादगी सबसे बड़ा सामर्थ्य है।