● संकलन: धर्मेंद्र पांडेय

साल 2007। अमेरिका का एक छोटा-सा कस्बा माउंट वर्नन, टेक्सास। शहर भले छोटा था, लेकिन वहां की खबरें बड़ी दिलचस्प थीं। कस्बे के मुख्य चौराहे पर एक व्यापारी ने नया बिजनेस खोलने का मन बनाया एक चमचमाता हुआ शराबखाना। संयोग से ठीक उसके बगल में स्थित था एक बैप्टिस्ट चर्च, जो वर्षों से प्रार्थना और संयम का प्रतीक माना जाता था।
जैसे ही चर्च वालों को यह खबर लगी कि शराब का अड्डा उनकी दीवार से सटेगा, उनके भीतर हलचल मच गई। पहले तो नगर निगम को आवेदन भेजे गए, फिर कस्बे की सभा में विरोध दर्ज किया गया। पर जब कोई सुनवाई नहीं हुई तो हथियार के रूप में उठीं दुआओं की तलवारें। चर्च में हर शाम विशेष प्रार्थना सभाएं होने लगीं “हे प्रभु, इस शराबखाने को उजाड़ दो ताकि हमारे विश्वास की जगह अपवित्रता न फैले।”
शराबखाना अपनी पूरी भव्यता के साथ बनता रहा। रंग-रोगन भी हो गया और उद्घाटन की तैयारियां जोरों पर थीं। लेकिन फिर एक रात कुछ ऐसा हुआ, जो अब तक सिर्फ धार्मिक ग्रंथों में पढ़ा गया था।
तेज बारिश हुई। आसमान में बिजली चमकी। और फिर एक जबरदस्त कड़कड़ाहट के साथ बिजली सीधी गिरी शराबखाने पर। पूरी इमारत राख में बदल गई।
चर्च वालों में जैसे दिवाली मन गई। वे बोले “देखा! प्रभु ने हमारी दुआ सुन ली।”
पर अगले ही हफ्ते, शराबखाना मालिक ने चर्च और उसकी प्रार्थना मंडली पर दो मिलियन डॉलर का मुकदमा ठोक दिया। उसका दावा था “तुम्हारी ही दुआओं ने मेरे सपनों को जला डाला! सीधे नहीं तो परोक्ष रूप से ही सही, जिम्मेदार तो तुम हो!”
अब चर्च वाले सकते में थे। वे कोर्ट में बोले “हमारी दुआ से कुछ नहीं होता! ये तो केवल मन की शांति के लिए होती है।” उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन का हवाला दिया, जिसमें प्रार्थनाओं के प्रभाव को खारिज किया गया था।
जज साहब चुपचाप सब सुनते रहे। गवाहियां आईं, तर्क रखे गए। और अंत में जब फैसला सुनाने का समय आया, तो वे मुस्कराए और बोले, ‘यह मुकदमा तो अजीब मोड़ ले चुका है। एक ओर हमारे पास शराबखाना मालिक है, जो प्रार्थना की ताकत पर पूरा भरोसा करता है, और दूसरी ओर एक पूरा चर्च समूह है जो दुआ की ताकत पर विश्वास ही नहीं करता!’