● सूर्यकांत उपाध्याय

इस बार रक्षाबंधन पर वह नहीं आ पाया। बस एक छोटा-सा लिफाफा भेजा, जिसमें एक चिट्ठी और सौ रुपये का नोट था।
चिट्ठी में लिखा था ‘दीदी, इस बार हालात कुछ ठीक नहीं हैं। लेकिन तू मेरे लिए सिर्फ बहन नहीं, ईश्वर का रूप है। माफ़ कर देना कि कुछ ख़ास नहीं भेज पाया।’
बहन ने चुपचाप लिफाफा खोला, नोट को माथे से लगाया और आँखें भीग गईं। बोली, ‘नालायक, भगवान की भक्ति में भेंट की कीमत नहीं देखी जाती।’
अगले ही दिन सुबह-सुबह भाई के घर की डोरबेल बजी। दरवाज़ा खोला तो सामने उसकी दीदी खड़ी थी। बिना कोई खबर दिए, बिना कोई शिकायत के।
‘अरे दीदी, आप यहां?’
वह बस हल्के से मुस्कराई, ‘तेरे बिना राखी अधूरी लगती है। तू मेरा भाई है, मैं तुझे यूं अकेला कैसे छोड़ सकती हूं?’
भाई के पास कहने को कुछ नहीं था, बस नज़रें झुकी रहीं।
वह दिन बीता। बहन ने खुद ही रसोई संभाली, घर सजाया और राखी भी बांधी।
फिर जाते वक्त चुपके से भाई की शर्ट की जेब में कुछ रख गई।
भाई ने देखा, बारह हज़ार रुपये थे। आंखें भर आईं।
‘दीदी, मैंने तो कभी तेरे लिए कुछ किया ही नहीं और तू आज भी मेरे लिए सब कुछ करती जा रही है।’
बहन ने गले लगाते हुए कहा, ‘तू ठीक है, यही मेरी सबसे बड़ी कमाई है। तू मेरा छोटा नहीं, मेरी दुनिया है। और याद रख, कुछ बहनें मां की तरह होती हैं, बस बिना दावा किए ममता लुटा जाती हैं।’