● सूर्यकांत उपाध्याय

प्राचीन समय में नील नामक एक भील युवक ने वन में भगवान शिव की लिंगमूर्ति देखी। भोलेपन से उसने अपने पास उपलब्ध वस्तुएँ मुख का जल, केशों में रखे फूल और भुना मांस अर्पित कर पूजा आरंभ कर दी। यह अजीब सी भक्ति प्रतिदिन चलती रही।
एक दिन भगवान शिव के नेत्र से रक्त बहने लगा। नील ने समझा कि प्रभु को चोट लगी है। उपचार के सभी प्रयास विफल होने पर उसने बिना संकोच अपनी आंख निकालकर भगवान की आंख पर रख दी। रक्त रुक गया पर दूसरी आंख से भी रक्त बहने लगा। तब उसने अपना पैर मूर्ति पर टिकाया ताकि स्थान पहचान सके और अपनी दूसरी आंख भी अर्पित कर दी।
उस क्षण शिव प्रकट हुए, नील का हाथ थामकर उसे शिवलोक ले गए और उसे कण्णप्प नाम से अमर कर दिया।
यहीं आज का श्री कालहस्तीश्वर मंदिर है, जिसे वायुतत्त्व लिंग माना जाता है। कहा जाता है कि मकड़ी, हाथी और सर्प ने भी यहां भगवान की उपासना की थी। इन्हीं के नाम से यह तीर्थ कालहस्ती कहलाया।
भक्ति में नियम या साधन नहीं, केवल हृदय की निष्कपट भावना मायने रखती है।