● सूर्यकांत उपाध्याय

कबीरदास जी की कुटिया के पास एक वेश्या ने कोठा बना लिया। एक ओर संत का मधुर भजन-कीर्तन, दूसरी ओर नाच-गाने की आवाज़ें।
कबीरजी ने विनम्रता से कहा – ‘बहन, तुम्हारे यहां बुरे लोग आते हैं, क्या तुम कहीं और रह सकती हो?’
वेश्या ने तिरस्कार से कहा, ‘फ़कीर! तू हट, मैं कहीं नहीं जाऊंगी।’
संत कबीर मौन होकर लौट आए तथा और भी भाव विह्वल होकर भजन करने लगे। भजन का ऐसा प्रभाव हुआ कि कोठे पर जाने वाले लोग अब कबीरजी के संग बैठकर सत्संग सुनने लगे। वेश्या का धंधा ठप हो गया।
क्रोधित होकर उसने अपने यारों से कबीर की कुटिया में आग लगवा दी। कबीर मुस्कराए और बोले – ‘वाह प्रभु! लगता है अब आप चाहते हैं कि मैं यहां से चला जाऊं।’
तभी आंधी चली, कुटिया की आग बुझ गई और वेश्या का कोठा जल उठा। घबराई वेश्या दौड़कर आई, ‘अरे कबीर! मेरा महल जल रहा है, कुछ कर!’
कबीर शांत स्वर में बोले, ‘ना तूने आग लगाई, ना मैंने आग लगाई। ये तो तेरे यारों ने अपनी यारी निभाई। मेरा भी एक यार है, जो अपने भक्तों का सदा सहारा बनता है।’
यह सुन वेश्या की आंखें खुल गईं। उसने समझ लिया कि प्रभु अपने भक्त का अपमान सहन नहीं कर सकते। गहरी ग्लानि से भरकर उसने पाप का जीवन छोड़ दिया और भजन-भक्ति में लग गई।
संदेश: भगवान कभी भी अपने भक्त का मान घटने नहीं देते। वे सदा उसके साथ रहते हैं, जैसे सच्चे यार।