● सूर्यकांत उपाध्याय

बहुत समय पहले, किसी नगर में एक प्रभावशाली महन्त रहते थे, जिनसे शिक्षा प्राप्त करने हेतु दूर-दूर से लोग आकर उनके शिष्य बनते थे।
एक दिन, एक शिष्य ने महन्त से प्रश्न किया, ‘स्वामीजी, आपके गुरु कौन हैं? आपने किस गुरु से शिक्षा प्राप्त की है?’
महन्त यह सुनकर मुस्कुराए और बोले, ‘मेरे बहुत से गुरु हैं, फिर भी मैं अपने तीन प्रमुख गुरुओं के बारे में अवश्य बताऊंगा।’
मेरा पहला गुरु एक चोर था।
एक बार मैं रास्ता भटककर दूर एक गाँव में पहुँचा। बहुत देर हो चुकी थी, सभी दुकानें और घर बंद थे। अन्ततः मुझे एक आदमी मिला, जो दीवार में सेंध लगाने की कोशिश कर रहा था।
मैंने उससे पूछा, ‘मैं कहाँ ठहर सकता हूँ?’
वह बोला, ‘आधी रात गए इस समय आपको कहीं आसरा मिलना मुश्किल है। यदि आप चाहें तो मेरे साथ रह सकते हैं। मैं एक चोर हूँ। यदि आपको आपत्ति न हो तो आज की रात मेरे साथ गुजार सकते हैं।’
वह इतना भला व्यक्ति था कि मैं उसके साथ एक रात की बजाय पूरा एक महीना रहा। वह हर रात कहता, ‘मैं अपने काम पर जाता हूँ, आप आराम से प्रार्थना करो।’ जब लौटता तो मैं पूछता, ‘कुछ मिला तुम्हें?’ वह उत्तर देता, ‘आज तो कुछ नहीं मिला, पर भगवान ने चाहा तो जल्द ही मिलेगा।’
कुछ दिन बाद मैंने उसे धन्यवाद दिया और घर लौट आया।
जब मुझे ध्यान करते-करते कई वर्ष बीत गए और कोई अनुभव नहीं हो रहा था, तब कई बार निराश होकर साधना छोड़ने का विचार आता। उसी समय मुझे उस चोर की याद आती, जो हर बार कहता था, ‘भगवान ने चाहा तो मिलेगा।’
और मैं फिर साधना में लीन हो जाता।
मेरा दूसरा गुरु एक कुत्ता था।
एक गर्मी के दिन मैं प्यासा भटक रहा था। तभी एक कुत्ता भी दौड़ता हुआ आया, वह भी प्यासा था। पास ही एक नदी थी।
कुत्ते ने पानी में झाँका तो अपनी परछाई देखकर डर गया और पीछे हट गया। पर प्यास से विवश होकर फिर लौटा। कई बार ऐसा हुआ। अन्ततः उसने साहस किया और नदी में कूद पड़ा। कूदते ही परछाई गायब हो गई।
उस कुत्ते से मुझे शिक्षा मिली कि सफलता उसी को मिलती है, जो डर का सामना साहस से करता है।
मेरा तीसरा गुरु एक छोटा बच्चा था।
मैं एक गाँव से गुजर रहा था। देखा, एक बच्चा जलती हुई मोमबत्ती लेकर मंदिर में रख रहा था।
मैंने उससे पूछा, ‘क्या यह मोमबत्ती तुमने जलाई है?’ वह बोला, ‘जी हाँ, मैंने ही जलाई है।’
मैंने कहा, ‘एक क्षण था जब यह बुझी हुई थी, फिर एक क्षण आया जब यह जल गई। क्या तुम मुझे वह स्रोत दिखा सकते हो, जहाँ से ज्योति आई?’
यह सुनकर बच्चा हँसा और मोमबत्ती बुझाते हुए बोला, ‘अब आपने ज्योति को जाते देखा, बताइए यह कहाँ गई?’
उस क्षण मेरा अहंकार चूर हो गया और अपनी मूढ़ता का बोध हुआ।
शिष्य होने का अर्थ है हर क्षण, हर ओर से सीखने को तैयार रहना। कभी किसी की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए। जीवन हमें प्रतिदिन किसी न किसी रूप में गुरु से मिलवाता है।