
हिंदू धर्म में वराह जयंती का विशेष महत्व है। यह पर्व भगवान विष्णु के तीसरे अवतार वराह अवतार की स्मृति में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है। वराह अवतार को धरती और धर्म की रक्षा का प्रतीक माना जाता है।
वराह अवतार की कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार दैत्य हिरण्याक्ष ने अपने बल से पृथ्वी को समुद्र की गहराइयों में ले जाकर छिपा दिया था। जब ब्रह्मांड में अराजकता फैलने लगी, तब देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की।
भगवान ने वराह (सूअर) का रूप धारण किया। यह रूप दिव्य और विराट था। पर्वत सदृश विशाल शरीर, अग्नि समान चमकते नेत्र, और गर्जना से दिशाएँ काँप उठीं।
भगवान वराह ने समुद्र में प्रवेश कर पृथ्वी की खोज की और अपने दाँतों पर धारण करके उसे पुनः जल से बाहर निकाला। इसके बाद उन्होंने दैत्य हिरण्याक्ष का वध कर धर्म की पुनः स्थापना की।
धार्मिक महत्व
वराह जयंती केवल पौराणिक कथा तक सीमित नहीं है बल्कि यह हमें यह संदेश देती है कि जब भी अधर्म और अन्याय बढ़ता है, तब ईश्वर किसी न किसी रूप में अवतरित होकर संतुलन स्थापित करते हैं।
यह पर्व हमें धरती माता की रक्षा और प्रकृति के संरक्षण का संदेश भी देता है। वराह अवतार यह स्पष्ट करता है कि पृथ्वी स्वयं देवी रूपा है और उसकी रक्षा करना प्रत्येक मानव का कर्तव्य है।
पूजन
इस दिन भक्त उपवास रखते हैं, भगवान विष्णु और वराह अवतार की पूजा करते हैं। विष्णु सहस्रनाम और वराह स्तुति का पाठ करना विशेष फलदायी माना गया है। कई स्थानों पर भगवान वराह के मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना और भजन-कीर्तन आयोजित होते हैं।
शास्त्रीय स्रोत
- श्रीमद्भागवत महापुराण (स्कंध ३, अध्याय १३–१९) में वराह अवतार की कथा विस्तार से वर्णित है।
- विष्णु पुराण (अध्याय १, खंड ४–५) में भी भगवान वराह द्वारा पृथ्वी उद्धार और हिरण्याक्ष वध का वर्णन मिलता है।