● संकलन: सूर्यकांत उपाध्याय

रात के ढाई बजे थे। एक सेठ को नींद नहीं आ रही थी। वह घर में चक्कर पर चक्कर लगाए जा रहे थे पर चैन नहीं पड़ रहा था। आखिरकार सेठ थक-हार कर घर से नीचे उतरे और अपनी कार से शहर की सड़कों पर यहां-वहां घूमने लगे। सेठ को रास्ते में एक मंदिर दिखा। उन्होंने सोचा कि थोड़ी देर इस मंदिर में जाकर भगवान के पास बैठता हूं। प्रार्थना करता हूं तो शायद शांति मिले।
सेठ मंदिर के अंदर गए तो देखा कि इतनी देर रात एक दूसरा आदमी पहले से ही भगवान की मूर्ति के सामने उदास और रुआंसा बैठा था।
सेठ ने पूछा,’क्यों भाई इतनी रात को मंदिर में क्या कर रहे हो?’
आदमी ने कहा, ‘मेरी पत्नी अस्पताल में है। सुबह यदि उसका ऑपरेशन नहीं हुआ तो वह मर जाएगी और मेरे पास ऑपरेशन के लिए पैसे नहीं हैं।’
उसकी बात सुनकर सेठ ने अपनी जेब में जितने रुपए थे, वह सब उस आदमी को दे दिए। अब गरीब आदमी के चहरे पर चमक आ चुकी थी। सेठ ने उस आदमी को अपना विजिटिंग कार्ड दिया और कहा ‘इसमें मेरा फोन नंबर और पता है। और पैसों की जरूरत पड़े तो निःसंकोच बताना।’
उस गरीब आदमी ने कार्ड वापस दे दिया और कहा, ‘मेरे पास उसका पता है। इस पते की जरूरत नहीं है सेठजी।’
सेठ ने आश्चर्यपूर्वक पूछा, ‘किसका पता है भाई?’
उस गरीब आदमी ने कहा, ‘जिसने रात को ढाई बजे आपको यहां भेजा, उसका।’
सेठ भगवान की मूर्ति के समक्ष नतमस्तक हो गए।