
● सूर्यकांत उपाध्याय
एक रानी स्नान के बाद महल की छत पर बाल सुखाने गई। उसने गले का हीरों का हार उतारकर पास ही रख दिया। तभी एक कौवा आया और हार उठाकर उड़ गया। पेड़ पर बैठकर चोंच से तोड़ने की कोशिश की पर नाकाम रहा। अंततः हार को टहनी पर छोड़कर उड़ गया।
रानी ने जब हार नहीं देखा तो रोती हुई राजा के पास पहुँची। राजा ने समझाया कि दूसरा बनवा देंगे पर रानी को वही हार चाहिए था। खोज शुरू हुई पर किसी को हार नहीं मिला। राजा ने ऐलान किया कि जो हार लाएगा, उसे आधा राज्य मिलेगा।
लोभ में सिपाही, प्रजा, मंत्री सब ढूँढने लगे। एक नाले में हार की परछाई दिखाई दी। सब लोग उसमें कूदते रहे पर हार किसी के हाथ न आया। कीचड़ से लथपथ होकर सब बाहर निकलते रहे।
राजा भी उतरा। तभी एक संत वहाँ से गुज़रे। उन्होंने हँसकर कहा, ‘तुम सब नीचे क्यों कूद रहे हो? यह तो परछाई है। असली हार तो ऊपर टहनी पर लटका है।’
संदेश : जिस सुख-शांति और आनंद को हम संसार की क्षणिक वस्तुओं में खोजते हैं, वह केवल परछाई है। असली हार, यानी शांति और आनंद, हमारे भीतर ही है, बाहर नहीं।