● सूर्यकांत उपाध्याय

अंतिम सांसें गिन रहे जटायु ने कहा, ‘मुझे पता था कि मैं रावण से नहीं जीत सकता लेकिन फिर भी मैंने युद्ध किया। यदि मैं नहीं लड़ता, तो आने वाली पीढ़ियाँ मुझे कायर कहतीं।’
जब रावण ने जटायु के दोनों पंख काट डाले, तब काल आया। जैसे ही काल समीप आया, गिद्धराज जटायु ने मृत्यु को ललकारकर कहा, ‘खबरदार, ऐ मृत्यु! आगे बढ़ने की कोशिश मत करना। मैं मृत्यु को स्वीकार तो करूँगा, लेकिन तू मुझे तब तक नहीं छू सकती, जब तक मैं सीता जी का समाचार प्रभु श्रीराम को नहीं सुना देता!’
मृत्यु उन्हें छू नहीं पा रही थी। काँपती हुई सामने खड़ी रही। यही इच्छा-मृत्यु का वरदान जटायु को प्राप्त हुआ। किंतु महाभारत के भीष्म पितामह छह महीने तक बाणों की शय्या पर लेटे मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। उनकी आँखों में आँसू थे, वे रो रहे थे और भगवान मन ही मन मुस्कुरा रहे थे।
कितना अलौकिक दृश्य है यह रामायण में जटायु प्रभु श्रीराम की गोद रूपी शय्या पर लेटे हैं, जहाँ प्रभु रो रहे हैं और जटायु हँस रहे हैं। वहीं महाभारत में भीष्म पितामह बाणों की शय्या पर लेटे हैं, जहाँ वे रो रहे हैं और भगवान श्रीकृष्ण हँस रहे हैं। भिन्नता स्पष्ट प्रतीत होती है।

अंत समय में जटायु को प्रभु श्रीराम की गोद की शय्या मिली लेकिन भीष्म पितामह को मृत्यु-शय्या के रूप में बाण मिले।
जटायु अपने कर्म के बल पर प्रभु श्रीराम की गोद में प्राण त्यागते हैं।
वहीं भीष्म पितामह बाणों पर लेटे हुए रोते हैं।
यह अंतर क्यों?
इसका कारण यह है कि भरे दरबार में भीष्म पितामह ने द्रौपदी का अपमान होते देखा पर विरोध न कर सके। दुःशासन और दुर्योधन को ललकारते तो परिणाम भिन्न होता। लेकिन द्रौपदी रोती-चिल्लाती रही और भीष्म मौन बैठे रहे। नारी की रक्षा न कर पाने का परिणाम यह हुआ कि इच्छा-मृत्यु का वरदान होते हुए भी उन्हें बाणों की शय्या मिली।
दूसरी ओर, जटायु ने नारी का सम्मान बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी इसलिए उन्हें मृत्यु के समय भगवान श्रीराम की गोद का वरदान प्राप्त हुआ।
जो अन्याय देखकर भी आँखें मूँद लेते हैं, उनकी गति भीष्म जैसी होती है और जो अपना परिणाम जानते हुए भी दूसरों के लिए संघर्ष करते हैं, उनका कीर्तिमान जटायु जैसा होता है। इसलिए अन्याय का विरोध अवश्य करना चाहिए।